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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 201 कूटसाक्षी दीर्घरोषी, विश्वस्तघ्नः कृतघ्नकः। चत्वारः कर्मचाण्डालाः, पञ्चमो जातिसम्भवः ।।१।। झूठी साक्षी भरनेवाला, बहुत समय तक रोष रखनेवाला, विश्वासघाती और कृतघ्न ये चारों कर्मचांडाल (कर्म से हुए चांडाल) कहलाते हैं, और पांचवा जातिचांडाल है। विश्वासघात के ऊपर यहां विसेमिरा का दृष्टान्त कहते हैं। यथाविसेमिरा : विशालानगरी में नंद नामक राजा, भानुमती नामक रानी, विजयपालक नामक राजपुत्र और बहुश्रुत नामक मंत्री था। राजा नंद भानुमती रानी में बहुत आसक्त होने से सभा में भी उसको पास ही रखता था। वैद्यो गुरुश्च मन्त्री च, यस्य राज्ञः प्रियंवदाः। शरीरधर्मकोशेभ्यः, क्षिप्रंस परिहीयते ।।१।। जिस राजा के वैद्य, गुरु और मंत्री प्रसन्नता रखने के निमित्त, केवल मधुर वचन बोलने वाले ही हों,राजा के कोप के भय से सत्य बात भी नहीं कहते, क्रमशः उस राजा के शरीर, धर्म और भंडार का नाश होता है। ऐसा नीतिशास्त्र का वचन होने से राजा को सत्य बात कहना अपना कर्तव्य है। यह सोचकर मंत्री ने राजा से कहा कि, 'हे महाराज! सभा में रानीसाहिबा को पास रखना योग्य नहीं है। कहा है कि अत्यासन्ना विनाशाय, दूरस्था न फलप्रदाः। सेव्या मध्यमभावेन, राजवहिगुरुस्त्रियः ।।१।। राजा, अग्नि, गुरु और स्त्री ये चार वस्तुएं बहुत समीप रहे तो विनाश करती हैं, और बहुत दूर हों तो अपना-अपना फल बराबर नहीं दे सकतीं। इसलिए रानी का एक उत्तम छायाचित्र (फोटो) बनवाकर उसे पास रखिये। राजा ने मंत्री की बात स्वीकार कर रानी का छायाचित्र बनवाकर अपने गुरु शारदानन्दन को बताया। उन्होंने अपनी विद्वत्ता बताने के लिए कहा कि, 'रानी की बायीं जांघ पर एक तिल है, वह इसमें नहीं है' गुरु के इन वचनों से राजा के मन में रानी के शील के सम्बन्ध में संशय आया, तथा उसने मंत्री को कहा कि, 'शारदानन्दन को मार डालो।' सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्। वृणते हि विमृश्यकारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।।१।। सगुणमपगुणं कुर्वता कार्यजातं, परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन। अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्तेर्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः।। मन्त्री ने विचार किया कि, सहसा कोई कार्य नहीं करना। विचार न करने से महान् संकट उत्पन्न होते हैं। सद्गुणों से लालायित सम्पदाएं विचार करके कार्य करनेवाले पुरुष को स्वयं आकर वरती हैं, पंडितपुरुष को शुभ अथवा अशुभ कार्य करते समय प्रथम उसके परिणाम का निर्णय कर लेना चाहिए। कारण यह है कि
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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