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________________ 197 श्राद्धविधि प्रकरणम् सर्वसंग परित्याग करना यह मोक्ष का कारण है। वचन क्लेश तो सर्वथा त्याज्य ही है। श्रीदारिद्यसंवाद में कहा है कि-(लक्ष्मी कहती है) हे इन्द्र!जहां महान पुरुषों की पूजा होती है,न्याय से धनोपार्जन होता है और लेशमात्र भी धन कलह नहीं, वहां मैं रहती हूं। (दारिद्य कहता है) नित्य जुआ खेलनेवाले, स्वजन के साथ द्वेष करनेवाले,धातुर्वाद (किमिया) करनेवाले, दिन-रात प्रमाद में बितानेवाले और आय-व्यय की ओर दृष्टि न रखनेवाले लोगों के पास में नित्य रहता हूं। विवेकीपुरुष को अपने लेने की उधारी भी कोमलता से तथा निन्दा न हो उसी प्रकार करनी चाहिए। ऐसा न करने से देनदार की दाक्षिण्यता,लज्जा आदिका लोप होता है और उससे अपने धन, धर्म और प्रतिष्ठा की हानि होना सम्भव है। इसीलिए स्वयं को चाहे उपवास करना पड़े, परन्तु दूसरे को उपवास न करवाना। स्वयं भोजन करके दूसरे को उपवास करवाना अयोग्य ही है। भोजन आदि का अंतराय करना यह ढंढणकुमारादिक की तरह बहुत दुःसह है। सर्वपुरुषों को तथा विशेषकर वणिग्जनों को सर्वथा संप सलाह से ही अपना सर्वकार्य साधना चाहिए। कहा है कि यद्यपि साम, दाम, भेद व दंड ये कार्य साधन के चार उपाय प्रसिद्ध हैं, तथापि साम से ही सर्वत्र कार्यसिद्धि होती है, शेष उपाय नाममात्र के हैं। कोई व्यक्ति तीक्ष्ण तथा बड़ा क्रूर हो, तो भी वह क्षमा से वश हो जाता है। देखो! जिव्हा में मधुरता होने से कठोर दांत भी दास की तरह उसकी सेवा करते हैं। लेने-देन के सम्बन्ध में जो भ्रम से अथवा विस्मरण आदि होने से कोई बाधा उपस्थित हो तो परस्पर व्यर्थ झगड़ा न करना। परन्तु चतुर लोक प्रतिष्ठित, हितकारी व न्याय कर सकें ऐसे चार पांच पुरुष निष्पक्षपाती जो कहे, उसे मान्य करना। अन्यथा विवाद नहीं मिट सकता। कहा है किविवाद से दूर रहना : . परैरेव निवात, विवादः सोदरेष्वपि। विरलान् कङ्कतः कुर्यात् अन्योऽन्यं गूढमूर्द्धजान् ।।१।। सहोदर भाइयों में विवाद हो तो भी उसे अन्य पुरुष ही मिटा सकते हैं। कारण कि-उलझे हुए बाल कंघी से ही अलग-अलग हो सकते हैं। न्याय करनेवाले पुरुषों को भी पक्षपात का त्यागकर मध्यस्थ वृत्ति रखकर ही न्याय करना चाहिए। और वह भी स्वजन अथवा स्वधर्मी आदि का कार्य हो तभी उत्तमता से सब बातों का विचार करके करना, प्रत्येक स्थान पर न्याय करने न बैठ जाना। कारण कि, लोभ न रखते उत्तमता से न्याय करने में आने पर भी उससे जैसे विवाद का भंग होता है और न्याय करनेवाले की प्रशंसा होती है, वैसे ही उससे एक भारी दोष भी उत्पन्न होता है। वह यह कि, विवाद तोड़ते न्याय करनेवाले के ध्यान में उस समय सही बात न आने से किसीका देना न हो तो वह माथे पड़ता है, और किसीका खरा देना हो तो वह रह जाता है। प्रस्तुत विषय के ऊपर एक बात सुनते हैं कि
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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