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________________ 198 श्राद्धविधि प्रकरणम् न्याय करने में विवेक : एक ऋद्धिवन्त श्रेष्ठी लोक में बहत प्रख्यात था। बडप्पन से तथा बहमान की अभिलाषा से जहां-तहां न्याय करने जाया करता था। उसकी बाल-विधवा परन्तु बहुत समझदार एक लड़की थी, वह सदैव श्रेष्ठी को ऐसा करने से मना किया करती थी, परन्तु वह मानता नहीं था। एक समय श्रेष्ठी को समझाने के निमित्त उस लड़की ने झूठा झगड़ा प्रारम्भ किया, कि 'पूर्व की धरोहर रखी हुई मेरी दो हजार स्वर्णमुद्राएं दो, तभी मैं भोजन करूंगी।' ऐसा कहकर वह श्रेष्ठीपुत्री उपवास करने लगी। किसीकी एक भी न सुनी। 'पिताजी वृद्ध हो गये तो भी मेरे धन का लोभ करते हैं।' इत्यादि ऐसे वचन बोलने लगी। अन्त में श्रेष्ठी ने न्याय करनेवाले पंचों को बुलवाया। उन्होंने आकर विचार किया कि, 'यह श्रेष्ठी की पुत्री है व बाल-विधवा है अतः इस पर दया करनी चाहिए।' यह सोच उन्होंने दो हजार सुवर्ण-मुद्राएं उसे दिलायी। जिससे धनहानि व अपयश के कारण श्रेष्ठी बहुत खिन्न हुआ। थोड़ी देर के अनन्तर पुत्री ने अपना सब अभिप्रायः अच्छी प्रकार समझाकर उक्त स्वर्णमुद्राएं वापस दे दी। जिससे श्रेष्ठी को हर्ष हुआ व उसने न्याय करने का परिणाम ध्यान में आ जाने से जहां-तहां न्याय करने को जाना छोड़ दिया इत्यादि। इसलिए न्याय करनेवाले पंचों को जहां-तहां जैसा-वैसा न्याय न करना चाहिए। साधर्मिक का, संघ का, श्रेष्ठ परोपकार का अथवा ऐसा ही योग्य कारण हो तो न्याय. करना। इसी प्रकार किसी जीव के साथ मत्सरता न करना। लक्ष्मी की प्राप्ति कर्माधीन है, इसलिए व्यर्थ मत्सर करने में क्या लाभ है? उससे दोनों भव में दुःख मात्र होता है। हमने कहा है कि जैसा दूसरे के लिए सोचे, वैसा स्वयं पाता है, ऐसा जानते हुए कौन व्यक्ति दूसरे की लक्ष्मी की वृद्धि देखकर मत्सर करता है? वैसे ही धान्य की बिक्री में लाभ के हेतु दुर्भिक्ष, औषधि में लाभ होने के हेतु रोगवृद्धि की तथा वस्त्र में लाभ होने के निमित्त अग्नि आदि से वृक्ष के क्षय की इच्छा न करना। कारण कि, जिससे मनुष्य संकट में आ पडें ऐसी इच्छा करने से कर्मबंधन होता है। दुर्दैव के योग से कदाचित् दुर्भिक्षादि हो जाय तो भी विवेकी पुरुष को कदापि अनुमोदना न करना। कारण कि उससे वृथा अपना मन मलीन होता है। यथापरिणामानुसार सम्मान : __दो मित्र थे। उनमें एक घी की व दूसरा चमड़े की खरीदी करने जा रहे थे। मार्ग में एक वृद्धा स्त्री के यहां भोजन करने वे दोनों ठहरे। वृद्ध स्त्री ने उनका भाव समझ घृत के खरीददार को घर के अन्दर और दूसरे को बाहर बिठाकर भोजन करवाया। दोनों जने खरीदी करके पुनः उसी वृद्धा स्त्री के यहां आये। तब उस स्त्री ने चमड़े के खरीददार को अन्दर और दूसरे को बाहर बैठाकर जिमाया। पश्चात् उन दोनों के पूछने पर उक्त वृद्धा ने कहा कि, जिसका मन शुद्ध था उसे अन्दर बैठाया, और जिसका मन मलीन था उसे
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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