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श्राद्धविधि प्रकरणम्
193 त्याग करना। अन्यथा अनन्त भव तक उन वस्तुओं के सम्बन्ध से होनेवाले बुरे फल भोगने पड़ते हैं।
यह हमारा वचन सिद्धान्त विरुद्ध नहीं है। श्री भगवती सूत्र के पांचवे शतक के छठे उद्देश में 'पारधी ने हरिण को मारा, तो जिस धनुष्य, बाण, प्रत्यंचा तथा लोहे से हरिण मरा, उन' जीवों को भी हिंसा (पांच क्रिया) लगती है। ऐसा कहा है। अस्तु, चतुरपुरुषों को किसी जगह धनहानि आदि हो जाय तो उससे मन में उदासीनता न लाना। कारण कि, उदासीनता न करना यही लक्ष्मी का मूल है। कहा है कि
सुव्यवसायिनि कुशले, क्लेशसहिष्णौ समुद्यतारम्भे। नरि पृष्ठतो विलग्ने, यास्यति दूरं कियल्लक्ष्मीः? ।।१।।
दृढ़ निश्चयवाला, कुशल, चाहे कितना ही क्लेश हो उसे सहन करनेवाला और निशदिन उद्यम करनेवाला मनुष्य पीछे पड़ जाये तो लक्ष्मी कितनी दूर जा सकती है? जहां धन उपार्जन किया जाता है, वहां थोड़ा बहुत धन तो नष्ट होता ही है। कृषक को बोये हुए बीज से उत्पन्न हुए धान्य के पर्वत समान ढेर के ढेर मिलते हैं तथापि बोया हुआ बीज तो उसे वापिस नहीं मिलता। वैसे ही जहां बहुतसा लाभ होता है वहां थोड़ी हानि तो सहन करनी ही पड़ती है। कभी दुर्दैव से विशेष हानि हो जाय, तो भी विवेकी पुरुष को दीनता नहीं करनी चाहिए, किन्तु ऊपर कही हुई रीति के अनुसार हानि हुआ द्रव्य धर्मार्थ सोच लेना। ऐसा करने का मार्ग न हो तो उसका मन से त्यागकर देना व लेशमात्र भी उदासीनता न रखनी चाहिए। कहा है कि
ग्लानोऽपि रोहति तरुः क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्च चन्द्रः। इति विमृशन्तः सन्तः, स तप्यन्ते न विपदाभिः ।।१।। विपदां सम्पदां चापि, महतामेव सम्भवः।
कृशता पूर्णता चापि, चन्द्र एव न चोडुषु ।।२।। काटा हुआ वृक्ष पुनः नवपल्लव होता है और क्षीण हुआ चन्द्रमा भी पुनः परिपूर्ण होता है। ऐसा विचार करनेवाले सत्पुरुष आपत्तिकाल आने पर मन में खेद नहीं करते। बड़े मनुष्य ही सम्पत्ति और विपत्ति इन दोनों को भोगते हैं। देखो! चन्द्रमा में ही क्षय व वृद्धि देखने में आती है, नक्षत्रों में नहीं। हे आम्रवृक्ष! फाल्गुण मास ने मेरी सर्वशोभा एकदम हरणकर ली ऐसा सोचकर तू क्यों उदास होता है? थोड़े ही समय में वसन्त ऋतु आने पर पूर्ववत् तेरी शोभा तुझे अवश्य मिलेगी। इस विषय पर ऐसा दृष्टान्त कहा जाता है किआभड़ सेठ
पाटण में श्रीमाली जाति का नागराज नामक एक कोटिध्वज श्रेष्ठी था। उसकी १. धनुष्य, बाण आदि के मूलजीवों को।