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श्राद्धविधि प्रकरणम् स्त्री का नाम मेलादेवी था। एक समय मेलादेवी के गर्भवती होते हुए श्रेष्ठी नागराज विषचिका (कॉलेरा) रोग से मर गया। राजा ने उसे निष्पुत्र समझ उसका सर्व धन अपने अधीन कर लिया, तब मेलादेवी अपने पियर धोलके गयी। गर्भ के सुलक्षण से मेलादेवी को अमारिपड़ह (अभयदान की डौंडी) बजवाने का दोहद उत्पन्न हुआ। वह उसके पिता ने पूर्ण किया। यथा समय पुत्रोत्पत्ति हुई, उसका नाम अभय रखा गया। लोगों में वह 'आभड़' नाम से प्रख्यात हुआ। पांच वर्ष का होने पर उसे पाठशाला में पढ़ने को भेजा। एक दिन सहपाठी बालकों ने इसे उपहास से 'नबापा, नबापा' (बिना बाप का) इस तरह चिढ़ाया। उसने घर आते ही आग्रहपूर्वक माता को पिता का स्वरूप पूछा। माता ने सब सत्य वृत्तान्त कह सुनाया। तदनन्तर आग्रह व प्रसन्नतापूर्वक आभड़ पाटण में गया तथा वहां व्यापार करने लगा। यथासमय उसने लाछलदेवी नामक कन्या से विवाह किया। पिता का गाड़ा हुआ द्रव्यआदि मिलने से वह भी कोटिध्वज हो गया। उसके तीन पुत्र हुए। - समय जाते बुरे कर्मों के उदय से वह निर्धन हो गया। उसने स्त्री को तीनों पुत्रों सहित उसके पियर भेज दी और स्वयं एक मनिहारे की दुकान पर मणिआदि घिसने के काम पर रहा। उसे कुछ जव मिलते थे, उन्हें स्वयं ही पीसकर तथा पकाकर खाता था। लक्ष्मी की गति कैसी विचित्र है? कहा है कि
वार्षिमाधवयोः सौधे, प्रीतिप्रेमाकधारिणोः।
या न स्थिता किमन्येषां, स्थास्यति व्ययकारिणाम्? ॥१॥
जो लक्ष्मी स्नेहपूर्वक गोद में बैठानेवाले समुद्र के तथा कृष्ण के राजमहल में स्थिर न रही वही लक्ष्मी अन्य खर्चीले लोगों के घर में किस प्रकार स्थिर रह सकती है? एक समय श्री हेमचंद्राचार्यजी के पास से परिग्रह परिमाण व्रत लेने के लिए आभड़ खड़ा हुआ। द्रव्य का परिमाण बहुत संक्षेप किया देखकर श्री हेमचंद्राचार्यजी ने उसे मना किया। तब उसने एक लाख द्रम्म तथा उन्ही अनुसार अन्य वस्तुओं का भी परिमाण रखा। परिमाण से धन आदि वृद्धि हो जाय तो उसे धर्मकार्य में व्यय करना निश्चय किया। धीरे-धीरे कुछ समय में पांच द्रम्म इकट्ठे हुए। जिससे उसने एक बकरी मोल ले ली। भाग्योदय से बकरी के गले में इन्द्रनील (मणि) बंधा था वह आभड़ ने पहिचान लिया। उसके टुकड़े कर एक-एक के लाख-लाख द्रम्म आवें ऐसे मणि बनवाये। जिससे वह पुनः पूर्ववत् धनिक हो गया। तब उसके कुटुम्ब के सब मनुष्य भी आ गये। उसके घर में से प्रतिदिन साधु मुनिराज को एक घड़ा भरकर घी वहोराया जाता था। प्रतिदिन साधर्मिकवात्सल्य, सदाव्रत तथा महापूजा आदि होती थी। प्रतिवर्ष दो बार सर्वदर्शनसंघ की पूजा होती थी। अनेक प्रकार की पुस्तकें लिखवायीं जाती, जीर्णमंदिर के जीर्णोद्धार होते तथा भगवान् की सुमनोहर प्रतिमाएं भी तैयार होती थीं। ऐसे-ऐसे धर्मकृत्य करते आभड़ की चौरासी वर्ष की अवस्था हो गयी। अन्त समय समीप आया, तब उसने धर्मखाते की बही पढ़वाई, उसमें भीमराजा के समय के