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श्राद्धविधि प्रकरणम् नहीं रखना, कारण कि उससे कभी आयुष्य पूर्ण हो जाय तो आगामी भव में पुनः दोनों जनों का सम्बन्ध होकर आपस में वैर आदि उत्पन्न होता है। सुनते हैं कि भावड़श्रेष्ठी को पूर्वभव के ऋण के सम्बन्ध से ही पुत्र हुए, यथाभावड़ सेठ का कथानक :
भावड़ नामक श्रेष्ठी था। उसकी स्त्री के गर्भ में एक जीव ने अवतार लिया, उस समय दुष्ट स्वप्न आये तथा उसकी स्त्रीको दोहद भी बड़े ही बुरे-बुरे उत्पन्न हुए। अन्य भी बहुत से अपशकुन हुए। समय पूर्ण होने पर श्रेष्ठी को मृत्यु योग पर दुष्ट पुत्र हुआ। वह घर में रखने योग्य नहीं था, इससे उसे माहनी नदी के किनारे एक सूखे हुए वृक्ष के नीचे पटक दिया। तब वह बालक प्रथम रुदनकर तथा पश्चात् हंसकर बोला कि, 'मैं तुम पर एक लाख स्वर्णमुद्राएं मांगता हूं, वे दो। अन्यथा तुम्हारे ऊपर अनेक अनर्थ आ पडेंगे।' यह सुन भावड़ श्रेष्टी ने पुत्र का जन्मोत्सव कर छठे दिन एक लाख स्वर्णमुद्राएं बांटी, तब वह बालक मर गया। इसी प्रकार दूसरा पुत्र तीन लाख स्वर्णमुद्राएं देने पर मृत्यु को प्राप्त हुआ। तीसरा पुत्र होने के अवसर पर स्वप्न तथा शकुन भी उत्तम हुए। पुत्र ने उत्पन्न होकर कहा कि, 'मुझे उन्नीस लाख स्वर्णमुद्राएं लेनी है।' यह कह उसने माबाप से उन्नीस लाख स्वर्णमुद्राएं धर्मखाते निकलवाई, उसमें से नवलाख स्वर्णमुद्राएं खर्चकर काश्मीर देश में श्री ऋषभदेव भगवान्, श्री पुंडरीक गणधर और चक्रेश्वरी देवी इन तीन की प्रतिमा ले गया, दस लाख स्वर्णमुद्रा खर्चकर वहां प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायी। तदनन्तर उपार्जित किया हुआ अपार स्वर्ण वहाण में भरकर भावड़ शत्रुजय को गया। वहां लेप्यमय प्रतिमाएं थीं, उन्हें निकालकर उनके स्थान पर उसने मम्माणी (पाषाण रत्न विशेष) की प्रतिमाएं स्थापन की....इत्यादि।
___ऋण के सम्बन्ध में प्रायः कलह तथा वैर की वृद्धि आदि होती है, यह बात प्रसिद्ध है। इसलिए ऋण चाहे किसी उपाय से वर्तमान भव में ही चुका देना चाहिए। दूसरे व्यवहार करते जो द्रव्य वापिस न मिले तो मन में यह समझना कि, उतना द्रव्य मैंने धर्मार्थ व्यय किया है। दिया हुआ द्रव्य उगाई करने पर भी वापस न मिले तो उसे धर्मार्थ मानने का मार्ग रहता है, इसी हेतु से ही विवेकीपुरुषों को साधर्मी भाइयों के साथ ही मुख्यतः व्यवहार करना, यह योग्य है। म्लेच्छ आदि अनार्य लोगों से लेना हो और वह जो वापस न आवे तो वह द्रव्य धर्मार्थ है यह समझने का कोई मार्ग नहीं, अतः उसका केवल त्याग करना अथवा उस परसे अपनी ममता छोड़ देना। यदि त्याग करने के अनन्तर देनदार कभी वह द्रव्य दे तो, उसे धर्मार्थकार्य में लेने के लिए श्रीसंघ को दे देना। वैसे ही द्रव्य, शस्त्र आदि आयुध अथवा अन्य भी कोई वस्तु गुम हो जावे, व मिलना सम्भव न हो, तो उसका भी त्याग करना चाहिए अर्थात् उसे वोसिराना चाहिए। ताकि जो चोर आदि उस वस्तु का उपयोग पापकर्म में करे तो उस पापकर्म के भागी हम नहीं होते इतना लाभ है। विवेकी पुरुषों को पाप का अनुबन्ध करनेवाली, अनन्तभव सम्बन्धी शरीर, गृह, कुटुम्ब, द्रव्य, शस्त्र आदि वस्तुओं का इसी रीति से