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श्राद्धविधि प्रकरणम्
189 विशेष लाभ होता हो तो भी पुण्यार्थी लोगों को ग्रहण न करना चाहिए। तैयार वस्त्र, सूत, नाणा, सुवर्ण और चांदी आदि व्यापार की वस्तुएं प्रायः निर्दोष होती हैं। व्यापार में सदैव ऐसा बर्ताव रखना चाहिए कि जिससे आरम्भ कम हो। दुर्भिक्ष आदि के समय अन्य किसी रीति से निर्वाह न होता हो, तो विशेष आरम्भ हो ऐसा व्यापार तथा खरकर्म आदि भी करे। तथापि खरकर्म (पन्द्रह कर्मादान) करने की इच्छा मन में रखनी न चाहिए, प्रसंगवश करना पड़े तो अपनी आत्मा व गुरु की साक्षी से उसकी निन्दा करनी चाहिए, तथा मन में लज्जा रखकर ही वैसे कार्य करना। सिद्धान्त में भाव श्रावक के लक्षण में कहा है कि सुश्रावक तीव्र आरम्भ वर्जे, और उसके बिना निर्वाह न होता हो,तो मन में वैसे आरम्भ की इच्छा न रख,केवल निर्वाह के हेतु ही तीव्र आरम्भ करे; परन्तु आरम्भ परिग्रह रहित धन्य जीवों की स्तुति करे। तथा सर्व जीवों पर दयाभाव रखे। जो मन से भी किसी जीव को कष्ट नहीं पहुंचाते और जो आरम्भ के पाप से विरति पाये हुए हैं, ऐसे धन्य महामुनिराज शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं। न देखा हुआ तथा न परखा हुआ किराना ग्रहण न करना। तथा जिसमें लाभ हानि की शंका हो, अथवा जिसमें अन्य बहुत सी वस्तुएं मिली हुई हों ऐसा किराना बहुत से व्यापारियों के हिस्से से लेना, ताकि कभी हानि हो तो सबको समान भाग से हो। कहा है किव्यापारी पुरुष व्यापार में धन प्राप्त करना चाहता हो तो उसको किराने देखे बिना डिपोजीट (स्वीकृति के रूप में कुछ रकम प्रथम देना) न देना और यदि देना हो तो अन्य व्यापारियों के साथ देना।
क्षेत्र से तो जहां स्वचक्र, परचक्र, रुग्णावस्था और व्यसन आदि का उपद्रव न हो, तथा धर्म की सर्व सामग्री हो, उस क्षेत्र में व्यापार करना, अन्यथा बहुत लाभ होता हो तो भी न करना। काल से तो बारह मास में आनेवाली तीन अट्ठाइयां, पर्वतिथि व्यापार में छोड़ना, और वर्षादि ऋतु के लिए जिन-जिन व्यापारों का सिद्धान्त में निषेध किया है, वे व्यापार भी त्यागना। किस ऋतु में कौन सा व्यापार न करना यह इसी ग्रंथ में कहा जायेगा। भाव से तो व्यापार के बहुत भेद हैं, यथा-क्षत्रियजाति के व्यापारी तथा राजा आदि के साथ थोड़ा व्यवहार किया हो तो भी प्रायः लाभ नहीं होता। अपने हाथ से दिया हुआ द्रव्य भी मांगते जिन लोगों का डर रहता है, ऐसे शस्त्रधारी आदि लोगों के साथ थोड़ा व्यवहार करने पर भी लाभ कहां से हो? कहा है कि श्रेष्ठवणिक् को क्षत्रिय व्यापारी, ब्राह्मण व्यापारी तथा शस्त्रधारी इनके साथ कभी भी व्यवहार न रखना, तथा पीछे से विरोध करनेवाले लोगों के साथ उधार का व्यापार भी न करना। कहा है कि कोई वस्तु उधार न देते संग्रह करके रखी जाये, तो भी अवसर पर उसके बेचने से मूलधन तो उपजेगा ही, परन्तु विरोध करनेवाले लोगों को दिया हो तो मूलधन भी उत्पन्न नहीं होता। जिसमें विशेषकर नट, विट (वेश्या के दलाल), वेश्या, तथा जुआरी आदि के साथ तो उधार का व्यापार कभी भी न करना। कारण कि, उससे मूलधन का भी नाश होता है। व्याजवट्टे का व्यापार भी मूलधन की अपेक्षा अधिक