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श्राद्धविधि प्रकरणम् लक्ष्मीर्वसति वाणिज्ये, किश्चिदस्ति च कर्षणे।
अस्ति नास्ति च सेवायां, भिक्षायां न कदाचन ।।१।। पूर्ण लक्ष्मी व्यापार में बसती है, थोड़ी खेती में है, सेवा में नहीं के बराबर है तथा भिक्षा में तो बिलकुल ही नहीं है।
उदरपोषण मात्र तो भिक्षा से होता है। जिससे अंधे आदि को आजीविका का साधन हो जाता है। मनुस्मृति के चौथे अध्याय में तो ऐसा कहा है कि ऋत १, अमृत २, मृत ३, प्रमृत ४ और सत्यानृत ५ इन उपायों से अपनी आजीविका करना, परन्तु नीच की सेवा करके अपना निर्वाह कभी न करना चाहिए। बाजार में पड़े हए दाने बीनना इसे ऋत कहते हैं । याचना किये बिना मिला हुआ अमृत २ याचना करने से मिला हुआ मृत कहलाता है ३। प्रमृत खेती ४ तथा सत्यानृत व्यापार को कहते हैं ५
और सेवा की आजीविका श्वानवृत्ति कही जाती है, इससे उसको छोड़ देनी चाहिए। व्यापार : - इन सब में वणिक् लोगों को मुख्यतः तो द्रव्यसंपादन का साधन व्यापार ही है। कहा है कि
महुमहणस्स य वत्थे न चेव कमलायरे सिरी वसइ। किंतु पुरिसाण ववसायसायरे तीइ सुहठाणं ॥१॥
लक्ष्मी विष्णु के वक्षस्थल अथवा कमलवन में नहीं रहती परन्तु पुरुषों का उद्यमरूपी समुद्र ही उसका निवासस्थान है। विवेकी-पुरुष को अपना तथा अपने सहायक धन, बल, भाग्योदय, देश, काल आदि का विचारकर के ही व्यापार करना चाहिए, अन्यथा हानि आदि होने की संभावना रहती है। हमने कहा है कि-बुद्धिमान पुरुषों को अपनी शक्ति के अनुसार ही कार्य करना। वैसा न करने से कार्य की असिद्धि, लज्जा, लोक में उपहास, अवहेलना, और लक्ष्मी तथा बल की हानि होती है। ..
अन्य ग्रन्थकारों ने भी कहा है कि देश कैसा है? मेरे सहायक कैसे हैं? काल कैसा है? मेरा आय-व्यय कितना है? मैं कौन हूँ? तथा मेरी शक्ति कितनी है? इन बातों का नित्य बार-बार विचार करना चाहिए।
शीघ्र हाथ आनेवाले, निर्विघ्न, अपनी सिद्धि के निमित्त बहुत से साधन अपने साथ रखनेवाले ऐसे कारण जिसके पास हो उस व्यक्ति को प्रथम से ही कार्यसिद्धि शीघ्र होगी ऐसी सूचना करते हैं। यत्न के बिना प्राप्त होनेवाली और बहत यत्न से भी प्राप्त न होनेवाली लक्ष्मी पुण्य-पाप का भेद बताती है। व्यापार में व्यवहार की शुद्धि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन भेदों से चार प्रकार की है, जिसमें द्रव्य से तो पन्द्रह कर्मादान आदि का कारण भूत किराना सर्वथा त्यागना। कहा है कि
धर्मबाधकरं यच्च, यच्च स्यादयशस्करम्।
भूरिलाभमपि ग्राह्यं, पण्यं पुण्यार्थिभिर्न तत् ।।१।। धर्म को पीड़ा करनेवाला तथा लोक में अपयश उत्पन्न करनेवाला किराना