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श्राद्धविधि प्रकरणम्
181 टके में खरीदी हुई वस्तु सो टके में बिकती है। यह सत्य बात है कि वैद्य तथा गांधी को लाभ व मान बहुत मिलता है; परंतु यह नियम है कि, जिसको जिस कारण से लाभ होता है, वह मनुष्य वैसा ही कारण नित्य बनाने की इच्छा रखता है। कहा है कियोद्धा रणसंग्राम की, वैद्य बड़े-बड़े धनवान लोगों के बीमार होने की, ब्राह्मण अधिक मृत्यु की तथा निर्गथ मुनिजन लोक में सुभिक्ष तथा क्षेमकुशल की इच्छा करते हैं। मन में धन उपार्जन करने की इच्छा रखनेवाले जो वैद्य लोगों के बीमार होने की इच्छा करते हैं,रोगी मनुष्य के रोगको औषधि से अच्छा होते रोककर द्रव्य लोभ से उलटी उसकी वृद्धि करते हैं ऐसे वैद्य के मन में दया कहां से हो सकती है? कितने ही वैद्य तो अपने साधर्मिक, दरिद्री, अनाथ, मृत्युशय्या पर पड़े हुए लोगों से भी बलात्कार से द्रव्य लेने की इच्छा करते हैं। अभक्ष्य वस्तु भी औषधि में डालकर रोगी को खिलाते और द्वारिका के अभव्य वैद्य धन्वन्तरि की तरह जाति-जाति की औषधि आदि के कपट से लोगों को ठगते हैं। 'थोड़ा लोभ रखनेवाले, परोपकारी व उत्तमप्रकृति के जो वैद्य हैं, उनकी वैद्यविद्या ऋषभदेव भगवान के जीव जीवानंद वैद्य की तरह इसलोक तथा परलोक में गुणकारी जानना।
खेती तीन प्रकार की है। एक वरसाद के जल से होनेवाली, दूसरी कुएँ आदि के जल से व तीसरी दोनों के जल से होनेवाली। गाय, भैंस, बकरी, बैल, घोड़ा, हाथी आदि जानवर पालकर अपनी आजीविका करना पशुरक्षावृत्ति कहलाती है। वह जानवरों के भेद से अनेक प्रकार की है। खेती और पशुरक्षावृत्ति ये दोनों विवेकी मनुष्य को करना योग्य नहीं। कहा है कि
रायाण दंतिदंते वइल्लखंधेसु पामरजणाणं।
सुहडाण मंडलग्गे, वेसाण पओहरे लच्छी ॥१॥ हाथी के दांत में राजाओं की लक्ष्मी, बैल के कंधे पर कृषकों की लक्ष्मी, खड्ग की धार पर योद्धाओं की लक्ष्मी तथा श्रृंगारे हुए स्तन पर वेश्याओं की लक्ष्मी रहती है। कदाचित् अन्य कोई वृत्ति न हो और खेती करनी ही पड़े तो बोने का समय आदि बराबर ध्यान में रखना। तथा पशुरक्षावृत्ति करनी पड़े तो मनमें पूर्ण दया रखना। कहा है कि जो कृषक बोने का समय, भूमि का भाग तथा उसमें कैसा धान्य पकता है, इसे अच्छी तरह जानता है, और मार्ग में आया हुआ खेत छोड़ देता है, उसीको बहुत लाभ होता है। वैसे ही जो मनुष्य द्रव्यप्राप्ति के निमित्त पशुरक्षावृत्ति करता हो, उसने मन में स्थित दयाभाव कदापि न छोड़ना चाहिए। उस कार्य में सब जगह जागृत रहकर छविच्छेद-खस्सी करना, नाक वीधना आदि त्यागना।
शिल्पकला सो प्रकार की है, कहा है कि कुंभार, लोहार, चित्रकार, सुतार और नाई ये पांच प्रकार के शिल्प मुख्य हैं। पश्चात् इन प्रत्येक के बीस बीस भेद मिलकर सो १. वर्तमान में डॉक्टर एवं वैद्य के एवं औषधियों का व्यापार विशेष हिंसक हो गया है अतः जैनों
को उससे परहेज रखना हितावह है।