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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 173 साधु को मुनिराज की शुश्रूषा करने के लिए रखकर शेष सर्व साधुओं ने विहार किया। एक समय कार्तिक चौमासी के दिन शेलक मुनिराज यथेच्छ आहार कर सो रहे। प्रतिक्रमण का समय आया तब पंथक ने खमाने के निमित्त उनके पग में अपना मस्तक रखा। जिससे उनकी निद्रा उड़ गयी और क्रुद्ध हुए, अपने गुरु को कुपित देखकर पंथक ने कहा-'चातुर्मास में हुए अपराध खमाने के निमित्त मैंने आपके चरणों को स्पर्श किया, पंथक का ऐसा वचन सुन उनको वैराग्य उत्पन्न हुआ और मन में विचार करने लगे कि, 'रसविषय में लोलुप हए मुझको धिक्कार है!' यह सोचकर उन्होंने तुरन्त विहार किया। पश्चात् अन्य शिष्य भी उन्हें मिले। वे शत्रुजय पर्वत पर अपने परिवार सहित सिद्धि को प्राप्त हुए....इत्यादि। धर्माचरण : . ___इसलिए सुश्रावक को नित्य सद्गुरु से धर्मोपदेश सुनना चाहिए। और धर्मोपदेश में कहे अनुसार यथाशक्ति धर्मानुष्ठान भी करना चाहिए। कारण कि, जैसे केवल औषधि के जानने से ही आरोग्यता नहीं होती, तथा भक्ष्य पदार्थ भी केवल देखने से पेट नहीं भरता, वैसे ही केवल धर्मोपदेश सुनने से भी पूर्णफल नहीं मिलता। अतएव उपदेशानुसार धर्मक्रिया करनी चाहिए। कहा है कि, पुरुषों को क्रिया ही फल को देनेवाली है। केवल 'ज्ञान' फल नहीं देता। कारण कि, स्त्री व भक्ष्य पदार्थको भोगने का ज्ञान हो, तो भी केवल उस ज्ञान से ही मनुष्य को भोग से मिलनेवाला सुख प्राप्त नहीं होता। वैसे ही कोई पुरुष तैरना जानता हो, तो भी जो नदी में गिरकर शरीर को नहीं हिलाये तो वह नदी के प्रवाह में बह जाता है, इसी रीति से ज्ञानवान् पुरुष धर्मक्रिया न करे, तो संसारसमुद्र में गोते खाता है। दशाश्रुतस्कंध की चूर्णि में कहा है कि जो अक्रियावादी हैं, वे भव्य हों, अथवा अभव्य हों, परन्तु नियम से कृष्ण पक्ष के तो होते ही हैं, और क्रियावादी नियम से भव्य व शुक्लपक्ष का ही होता है। वे सम्यग्दृष्टि हों अथवा मिथ्यादृष्टि हो तो भी वे पदगल परावर्त के अन्दर सिद्ध होंगे। इस पर से यह न समझना कि 'ज्ञान बिना की क्रिया भी हितकारी है, कहा है कि अन्नाणा कम्मखओ, जायइ मंडुक्कचुण्णतुल्लत्ति। सम्मकिरिआइ सो पुण, नेओ तच्छारसारिच्छो ।।१।। जं अन्नाणी कम्मं, खवेइ बहुआहिं वासकोडीहिं। तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ।।२।। ज्ञान रहित क्रिया से जो कर्म का क्षय होता है, वह मंडूकचूर्ण के समान है, और ज्ञानपूर्वक क्रिया से जो कर्म का क्षय होता है वह मंडूकभस्म के समान है। अज्ञानी जीव करोड़ों वर्षों से जितने कर्मका क्षय करता है, उतने कर्मको मन, वचन, काया की गुप्ति रखनेवाला ज्ञानी एक उच्छश्वास में क्षय कर देता है। इसीलिए तामलितापस, पूरणतापस इत्यादिलोगों ने तपस्या का महान् कष्ट सहन किया,तो भी उन्हें ईशानेन्द्रपन और चमरेन्द्रपन इत्यादिक अल्प ही फल मिला। जो ज्ञानीपुरुष हो, तथापि चित्त में
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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