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________________ 144 श्राद्धविधि प्रकरणम् जिनमंदिर की उचित चिंता : मूल गाथा में 'उचिअचिंतरओ' अर्थात् 'उचित चिन्ता करने को तत्पर' ऐसा कहा है, इसलिए उचित चिंता वह क्या? उसका वर्णन करते हैं। जिनमंदिर में सफाई रखना; जिनमंदिर अथवा उसका भाग गिरता हो तो तुरंत व्यवस्थित करवाना; पूजा के उपकरण कम हों तो पूरे करना; भगवान् की तथा परिवार की प्रतिमाएं निर्मल रखना, उत्कृष्ट पूजा तथा दीपादिक की उत्कृष्ट शोभा करना, चौरासी आशातनाएं टालना; अक्षत, फल, नैवेद्य आदि की शुद्धता रखना, चंदन, केशर, धूप, दीप, तैल इन वस्तुओं का संग्रह करना, चैत्यद्रव्य का नाश होता हो तो आगे कहा जायेगा उस दृष्टांत के अनुसार उसकी रक्षा करना, दो चार अच्छे श्रावकों को साक्षी रखकर देवद्रव्य की उगई (उगरानी, वसूली) करना, आया हुआ द्रव्य उत्तम स्थान में यत्न से रखना, देवद्रव्य के जमा खर्च का हिसाब स्वच्छ रखना, स्वयं देवद्रव्य की वृद्धि करना तथा दूसरे से कराना। मंदिर में काम करनेवाले लोगों को वेतन यथायोग्य देना, उन लोगों के काम की देखरेख रखना इत्यादि अनेक प्रकार की उचित चिन्ता है। द्रव्यवान् श्रावक से मंदिर के कार्य द्रव्य अथवा नौकरों द्वारा बिना प्रयास ही हो सकें ऐसे हैं वे, तथा अपनी अंग-मेहनत से अथवा अपने कुटुम्ब के मनुष्यों से बन सके ऐसे कार्य हो वे, और निर्धन मनुष्यों से बिना द्रव्य के ही हो जाये ऐसे हैं वे, सभी कार्य यथायोग्य करना करवाना। अतएव जिसकी जो करने की शक्ति हो, उसे उस कार्य में वैसी ही उचित चिन्ता करना। जो उचित चिंता थोड़े समय में हो सके ऐसी हो वह दूसरी निसिहि से पूर्व ही करना, इसके अनन्तर भी जैसा योग हो वैसा करना। ऊपर जैसे मंदिर की उचित चिंता कही, वैसे ही धर्मशाला, गुरु, ज्ञान आदि की भी उचित चिंता अपनी पूर्णशक्ति से करना। कारण कि देव, गुरु आदि की चिन्ता करनेवाला श्रावक के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है। जैसे एक गाय के बहुत से मालिक ब्राह्मण उसका दूध तो निकाल लेते हैं पर उसे घास पानी कोई नहीं देते, उस तरह देव, गुरु आदि की उपेक्षा अथवा उनके काम में प्रमाद न करना। कारण कि, ऐसा करने से समय पर सम्यक्त्व का भी नाश हो जाता है। आशातना आदि होने से जो अपने को अतिदुःख न हो तो वह कैसी अरिहंत आदि की भक्ति? लौकिक में भी सुनते हैं कि, महादेव की आंख उखड़ी हुई देखकर अत्यंत दुःखित हुए भील ने अपनी आंख महादेव को अर्पण की थी। इसलिए सदैव देव-गुरु आदि के काम स्वजन संबन्धियों के काम की अपेक्षा भी आदरपूर्वक करना। हम यह कहते हैं कि सर्व संसारी जीवों की देह, द्रव्य और कुटुम्ब पर जैसी प्रीति होती है, वैसी ही प्रीति मोक्षाभिलाषी जीवों की जिन-प्रतिमा, जिनमत और संघ के ऊपर होती है। ज्ञान आशातना : देव, गुरु और ज्ञान इत्यादिक की आशातना जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसी तीन प्रकार की है। जिसमें पुस्तक, पाटली, टिप,जपमाला आदि को थूक लगाना, कम
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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