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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 143 और बड़े हर्ष के साथ उसी समय धर्मदत्त को दीं। पश्चात् धर्मदत्त ने विद्याधर के किये हुए दिव्य उत्सव में उन चारों कन्याओं का पाणिग्रहण किया । तदनन्तर विचित्रगति विद्याधर धर्मदत्त तथा अन्य सर्व राजाओं को लेकर वैताढ्य पर्वत पर गया। वहां विविध प्रकार के उत्सव करके उसने अपनी कन्या और राज्य धर्मदत्त को अर्पण किया तथा उसी समय उसकी दी हुईं एक सहस्र विद्याएं धर्मदत्त को सिद्ध हुईं। इस प्रकार विचित्रगति आदि विद्याधरों की दी हुई पांचसो कन्याओं का पाणिग्रहण करके धर्मदत्त अपने नगर में आया, और वहां भी अन्य राजाओं की पांचसो कन्याओं से विवाह किया। पश्चात् राजधर राजा ने भी अपनी समग्र राज्यसंपदा अपने सद्गुणी पुत्र धर्मदत्त को सौंप दी और चित्रगति सद्गुरु के पास अपनी पट्टरानी प्रीतिमती सहित दीक्षा ली। विचित्रगति ने भी धर्मदत्त को पूछकर दीक्षा ग्रहण की। समय पाकर चित्रगति, विचत्रिगति, राजधर राजा और प्रीतिमति रानी ये चारों अनुक्रम से मोक्ष में गये । इधर धर्मदत्त ने हजारों राजाओं को जीत लिए, और वह दस हजार रथ, दस हजार हाथी, एक लक्ष घोड़े और एक करोड़ पैदल सैन्य का अधिपति हो गया। अनेक प्रकार की विद्याओं के मद को धारण करनेवाले सहस्रों विद्याधरों के राजा धर्मदत्त की सेवा में तत्पर हो गये। इस तरह बहुत समय तक इन्द्र की तरह उसने बहुत सा राज्य भोगा । उसने स्मरण करते ही आने वाले पूर्व प्रसन्न किये हुए देव की सहायता से अपने देश को देवकुरु क्षेत्र की तरह महामारी, दुर्भिक्ष इत्यादि से रहित कर दिया । पूर्वभव में भगवान् की सहस्रदल कमल से पूजा की उससे इतनी संपदा पाने पर भी वह यथाविधि त्रिकाल पूजा करने में नित्य तत्पर रहता था। 'अपने ऊपर उपकार करनेवाले का पोषण अवश्य करना चाहिए' ऐसा विचार कर धर्मदत्त ने नये-नये चैत्य में प्रतिमा स्थापन करवायी तथा तीर्थयात्रा, स्नात्रमहोत्सव आदि शुभकृत्य करके अपने ऊपर उपकार करनेवाली जिन-भक्ति का बहुत ही पोषण किया। उसके राज्य में अट्ठारहों वर्णवाले 'यथा राजा तथा प्रजा' इस लोकोक्ति के अनुसार जैन धर्मी हो गये। जैनधर्म से ही इस भव तथा परभव में उदय होता है। धर्मदत्त ने अवसर पाकर पुत्र को राज्य देकर रानियों सहित दीक्षा ली और मन की एकाग्रता से तथा अरिहंत पर दृढभक्ति से तीर्थंकर नामगोत्र कर्म उपार्जन किया। यहां दो लाख पूर्व का आयुष्य भोगकर वह सहस्रारदेवलोक में देवता हुआ। तथा वे चारों रानियां जिनभक्ति से गणधर बनने योग्य कर्म संचितकर उसी देवलोक में गयीं। पश्चात् उन पांचों का जीव स्वर्ग से च्युत हुआ, धर्मदत्त का जीव महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर हुआ और चारों रानियों के जीव उसके गणधर हुए | पश्चात् धर्मदत्त का जीव तीर्थंकर नामगोत्र को भोगकर क्रम से गणधर सहित मुक्ति को गया । इन पांचों का क्या आश्चर्यकारी संयोग है? समझदार मनुष्यों को इस तरह जिनभक्ति का ऐश्वर्य जानकर धर्मदत्त राजा की तरह जिनभक्ति तथा अन्य शुभ - कर्म करने हेतु सदैव तत्पर रहना चाहिए। ॥ इति धर्मदत्त राजा की कथा ॥
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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