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________________ 142 श्राद्धविधि प्रकरणम् विचार किया कि अभी मैंने देवता का स्मरण नहीं किया था, तो भी उसने अपनी शक्ति से मुझे अपने स्थान को पहुंचा दिया। प्रसन्न हुए देवता को इतना सा कार्य करना क्या कठिन है? धर्मदत्त के मिलाप होने से उसके माता, पिता, कुटुम्बी, नौकर-चाकर आदि को बहुत ही आनंद हुआ, पुण्य की महिमा अद्भुत है। पश्चात् उसने पारणे के निमित्त उत्सुकता न रखकर उस दिन भी विधि के अनुसार जिन-प्रतिमा की पूजा की और उसके बाद पारणा किया। धर्मनिष्ठ पुरुषों का आचार अपार आश्चर्यकारी होता है। - उन चारों कन्याओं के जीव पूर्व, पश्चिम, दक्षिण व उत्तर इन चारों दिशाओं में स्थित देशों के चार राजाओं की सबको बहुमान्य, बहुत से पुत्रों पर कन्याएं हुईं। उनमें पहिली का नाम धर्मरति, दूसरी का धर्ममति, तीसरी का धर्मश्री और चौथी का धर्मिणी नाम था, नाम के अनुसार उनमें गुण भी थे। जब वे चारों तरुण हुईं तो ऐसी शोभा देने लगीं मानो लक्ष्मी देवी ने ही अपने चार रूप बनाये हों। एक दिन वे अनेक सुकृतकारी उत्सव के स्थानरूप जिनमंदिर में आयी और अरिहंत की प्रतिमा देखकर जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त हुईं। जिससे 'जिन प्रतिमा की पूजा किये बिना हम भोजन नही करेंगी' ऐसा नियम लेकर हमेशा जिनभक्ति करती रहीं। तथा उन चारों कन्याओं ने एक दिल हो ऐसा नियम किया था कि, 'अपना पूर्व भव का परिचित वर वरेंगी'। यह जान पूर्वदेश के राजा ने अपनी पुत्री धर्मरति के लिए स्वयंवर मंडप किया, व उसमें समग्र राजाओं को निमंत्रित किया। पुत्र सहित राजधर राजा को आमंत्रण आया था, तो भी धर्मदत्त वहां नहीं गया। कारण कि, उसने विचारा कि, 'जहां फल प्राप्ति होने न होने का निश्चय नहीं ऐसे कार्य में कौन दौड़ता जावे?' इतने में ही विद्याधरेश विचित्रगति राजा चारित्रवंत हुए अपने पिता के उपदेश से पंच महाव्रत ग्रहण करने को तैयार हुआ। उसको एक कन्या थी। अतः उसने प्रज्ञप्ति विद्या को पूछा कि, 'मेरी पुत्री से विवाह कर मेरा राज्य चलाने योग्य कौन पुरुष है?' प्रज्ञप्ति ने कहा कि, 'तू तेरी पुत्री व राज्य सुपात्र धर्मदत्त को देना।' विद्या के इन वचनों से विद्याधर को बहुत हर्ष हुआ। तथा धर्मदत्त को बुलाने के लिए राजपुर नगर को आया। वहां धर्मदत्त के मुख से धर्मरति कन्या के स्वयंवर के समाचार सुन, विचित्रगति धर्मदत्त को साथ ले देवता की तरह अदृश्य हो धर्मरति के स्वयंवर मंडप में आया। वहाँ उन दोनों ने देखा कि वहां कन्या ने किसीको भी अंगीकार नहीं किया, इससे सब राजाओं को उदास व निस्तेज अवस्था में देखा। सब लोग आकुल व्याकुल हो रहे थे कि, अब क्या होगा?' इतने ही में प्रातःकाल के सूर्य की तरह विचित्रगति व धर्मदत्त प्रकट हुए। राजकन्या धर्मरति धर्मदत्त को देखते ही संतुष्ट हुई, और जैसे रोहिणी ने वसुदेव को वरा वैसे ही उसने धर्मदत्त के गले में वरमाला डाल दी। पूर्वभव का प्रेम अथवा द्वेष ये दोनों अपने-अपने उचित कर्मों में जीव को प्रेरणा करते हैं। बाकी तीनों दिशाओं के राजा वहां आये हुए थे। उन्होंने विद्याधर की सहायता से अपनी तीनों पुत्रियों को विमान में बिठाकर वहां बुलवायी
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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