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श्राद्धविधि प्रकरणम्
141 उत्कृष्ट-भाव रखनेवाला वह धर्मदत्त, अनुक्रम से माध्यमिक अवस्था को पहुंचा, तब मोटे सांटे की तरह उसमें लोकोत्तर मिठास आयी। एक दिन किसी परदेशी पुरुष ने धर्मदत्त के लिए इन्द्र के अश्व समान एक अश्व राजा को भेट किया। तब धर्मदत्त अपने समान यह अश्व भी स्वर्ग में दुर्लभ है ऐसा सोच योग्य वस्तु का योग करने की इच्छा से उसी समय पिता की आज्ञा लेकर उस अश्व पर चढ़ा। बड़े खेद की बात है कि, ज्ञानी मनुष्य को भी मोह वश में कर लेता है! अस्तु, धर्मदत्त के ऊपर चढ़ते ही मानों अपना अलौकिक वेग आकाश में भी दिखाने के निमित्त अथवा इन्द्र के अश्व को मिलने की उत्सुकता से ही वह अश्व एकदम आकाश में उड़ गया व क्षणमात्र में अदृश्य हो गया तथा हजारों योजन पारकर, धर्मदत्त को एक विकट जंगल में पटककर वह कहीं भाग गया। सर्प के फूंकार से, बन्दर की बुत्कार से (घुड़की से), सूअर की धुत्कार से, चीते की चित्कार से, चमरी गाय के भाँकार से, रोझ के त्राट्कार से व दुष्ट शियालियों के फेत्कार से बहुत ही भयंकर वन में भी स्वभाव से ही निड़र धर्मदत्त को लेशमात्र भी भय न हुआ। सत्य है, सत्पुरुष विपत्तिकाल में बहुत ही धैर्य रखते हैं, और संपदा आने पर बिलकुल अहंकार नहीं रखते, वह गजेन्द्र की तरह उस वन में यथेच्छ फिरता हुआ, शून्यवन में भी मन को शून्य न रखते, जैसे अपने राज-मंदिर में रहता था, वैसे ही स्वस्थता से वहां रहा। परन्तु जिन प्रतिमा का योग मात्र न मिलने से वह दुःखी हुआ, तथापि शान्ति रखकर उस दिन फल आदि वस्तु भी न खाकर उसने पाप का नाश करनेवाला निर्जल उपवास (चौविहार उपवास) किया। शीतल जल व अनेक प्रकार के फल होने पर भी क्षुधा, तृषा से अत्यन्त पीड़ित धर्मदत्त को इसी प्रकार तीन उपवास हो गये। अपने ग्रहण किये हुए नियम सहित धर्म में यह कैसी आश्चर्यकारक दृढ़ता है! लू लगने से अत्यन्त मुरझाई हुई पुष्पमाला के समान धर्मदत्त का सर्वांग मुरझा गया था तथापि धर्म में दृढ़ता होने से उसका मन बहुत ही प्रसन्न था। इतने में एक देव प्रकट होकर उससे कहने लगा
'अरे सत्पुरुष! बहत श्रेष्ठ! बहत श्रेष्ठ! तने असाध्य कार्य साधन किया, अहो, कितना धैर्य! अपने जीवन की अपेक्षा न रखते ग्रहण किये हुए नियम में ही तेरी दृढ़ता अनुपम है। शक्रेन्द्र ने तेरी प्रकट प्रशंसा की वह योग्य है। वह बात मुझसे सहन न हुई, इसीलिए मैंने यहां वन में लाकर तेरी धर्म मर्यादा की परीक्षा की। हे सुजान! तेरी दृढ़ता से मैं प्रसन्न हूं, अतएव मुख में से एक वचन निकालकर इष्ट वरदान मांग।' देवता का यह वचन सुन धर्मदत्त ने विचारकर कहा कि, 'हे देव! मैं जब तेरा स्मरण करूं तब तू मेरा कार्य करना।'
पश्चात् वह देव 'यह धर्मदत्त अद्भुत भाग्य का निधि है, कारण कि, इसने मुझे इस तरह बिलकुल वश में कर लिया।' ऐसा सोचता हुआ धर्मदत्त का वचन अंगीकारकर उसी समय वहां से चला गया. तदन्तर धर्मदत्त 'अब मुझे मेरा स्थानादि कैसे मिलेगा?' इस विचार में था, कि इतने में उसने अपने आपको अपने ही महल में देखा। तब उसने