SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 140 श्राद्धविधि प्रकरणम् है, जिसमें प्रथम धर्म थोड़ा उपार्जन किया हो तो भी निश्चय से दूसरे की अपेक्षा अनंतगुणा फल देता है, और दूसरा धर्म बहुत उपार्जन किया हो, तो भी परिमित व अनिश्चित फल देता है। कुछ भी ठहराव किये बिना किसीको बहुत समय तक व बहुत सा द्रव्य कर्ज दिया हो, तो उससे किंचित् मात्र भी व्याज उत्पन्न नहीं होता, और जो कर्ज देते समय ठहराव किया हो तो उस द्रव्य की प्रतिदिन वृद्धि होती जाती है। ऐसे ही धर्म के विषय में भी नियम करने से विशेष फल वृद्धि होती है। तत्त्वज्ञानी पुरुष हो, तो भी अविरति का उदय होने पर श्रेणिक राजा की तरह उससे नियम नहीं लिया जा सकता और अविरति का उदय न हो तो लिया जाता है। तथापि कठिन समय आने पर दृढ़ता रखकर नियम भंग न करना, यह बात तो आसन्नसिद्धि जीव से ही बन सकती है। इस धर्मदत्त ने पूर्वभव से आयी हुई धर्मरुचि से तथा भक्ति से अपनी एक मास की ही उमर में कल नियम ग्रहण किया। कल जिनदर्शन तथा वन्दन कर लिया था इसलिए इसने दूध आदि पिया आज यद्यपि यह क्षुधा, तृषा से पीडित हुआ तथापि दर्शन व वन्दन का योग न मिलने से इसने मन दृढ़ रखकर दूध न पिया। मेरे वचन से इसका अभिग्रह पूर्ण हुआ तब इसने दूधपानादि किया। पूर्वभंव में जो शुभाशुभ कर्म किया हो, अथवा करने का विचार किया हो, वह सब परभव में उसीके अनुसार मिल जाता है। इस महिमावन्त पुरुष को पूर्वभव में की हुई जिनेश्वर भगवान की अप्रकट भक्ति से भी चित्त को चमत्कार उत्पन्न करनेवाली परिपूर्ण समृद्धि मिलेगी। माली की चारों कन्याओं के जीव स्वर्ग से च्यवकर पृथक्-पृथक् बड़े-बड़े राजकुलों में उत्पन्न होकर इसकी रानियां होंगी। साथ में सुकृत करनेवालों का योग भी साथ ही रहता है।' . मुनिराज की यह बात सुन तथा बालक के नियम की बात प्रत्यक्ष देख राजा आदि लोगों ने नियम सहित धर्म अंगीकार किया। पुत्र को प्रतिबोध करने के लिए जाता हूं।' यह कहकर वे मुनिराज गरुड़ की तरह वैताढ्य पर्वत को उड़ गये। 'जगत् को आश्चर्यकारक अपनी रूपसंपत्ति से कामदेव को भी लज्जित करनेवाला जातिस्मरण पाया हुआ धर्मदत्त, ग्रहण किये हुए नियम को मुनिराज की तरह पालता हुआ क्रमशः बढ़ने लगा। उसके सर्वोत्कृष्ट शरीर के साथ ही साथ उसके रूप, लावण्य आदि लोकोत्तर सद्गुणों की भी दिन प्रतिदिन वृद्धि होने लगी तथा धर्म करने से उसके सद्गुण विशेष सुशोभित हुए। कारण कि, इसने तीन वर्ष की उमर में ही 'जिनेश्वर भगवान की पूजा किये बिना भोजन नहीं करना।' ऐसा अभिग्रह लिया। निपुण धर्मदत्त को लिखना, पढ़ना आदि बहत्तर कलाएं मानो पूर्व में ही लिखी पढ़ी हों, वैसे सहज मात्र लीला से ही शीघ्र आ गयी। पुण्य भी अपार चमत्कारी है, तत्पश्चात् उसने यह विचार किया कि, 'पुण्यानुबंधी पुण्य से परभव में भी पुण्य की प्राप्ति सुख पूर्वक होती है' सद्गुरु के पास से स्वयं श्रावक-धर्म स्वीकार किया। ___ 'धर्मकृत्य विधि बिना सफल नहीं होता।' यह विचारकर उसने त्रिकाल देवपूजा आदि शुभकृत्य श्रावक की सामाचारी के अनुसार करना शुरू किया। हमेशा धर्म पर
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy