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श्राद्धविधि प्रकरणम्
139 ने पंच महाव्रत ग्रहण किये। पश्चात् विचित्रगति ने पश्चात्ताप करके चित्रगति को खमाया व पुनः राज्य पर बैठने की बहुत प्रार्थना की। चित्रगति ने चारित्र लेने का सभी कारण कह सुनाये, पश्चात् पवन की तरह अप्रतिबंध विहार किया। साधुकल्प के अनुसार विहार करते तथा महान कठिन तपस्या करते मुनिराज चित्रगतिको अवधिज्ञान व उसीके साथ मानो स्पर्धा से ही मनःपर्यवज्ञान भी उत्पन्न हुआ। (चित्रगति मुनि राजा को कहते हैं कि) वही मैं ज्ञान से लाभ हो ऐसा समझकर तुम्हारा मोह दूर करने के लिए यहां आया हूं। अब मैं संपूर्ण वर्णन करता हूं। वसुमति का जीव देवलोक से च्यवकर तू राजा हुआ, और सुमित्र का जीव तेरी प्रीतिमती नामक रानी हुई इस प्रकार तुम दोनों की प्रीति पूर्वभव से ही दृढ़ हुई है अपना श्रेष्ठ श्रावकत्व बताने के लिए सुमित्र ने कभी कभी कपट किया इससे वह स्त्रीत्व को प्राप्त हुआ। बड़े खेद की बात है कि चतुर मनुष्य भी अपने हिताहित को भूल जाता है। 'मेरे से प्रथम मेरे छोटे भाई को पुत्र न हो।' सुमित्रने ऐसा चिन्तन किया, इसीसे इस भव में इतने विलम्ब से पुत्र हुआ। एक बार किसीका बुरा चिन्तन किया हो तो भी वह अपने को उसका कठिन फल दिये बिना नहीं रहता। धन्य के जीव ने देवता के भव में एक दिन सुविधि जिनेश्वर को पूछा कि, 'मैं यहां से च्यवकर कहां उत्पन्न होऊंगा?' तब भगवान ने उसे तुम दोनों का पुत्र होने की बात कही। तब धन्य के जीव ने विचार किया कि, 'मा बाप ही धर्म न पाये हों, तो पुत्र को धर्म की सामग्री कहां से मिले? मूल कुएँ में जो पानी हो तभी समीप के प्याऊ (जिसमें ढोर पानी पीते हैं) में सहज से मिल सकता है।' ऐसा विचार करके अपने को बोधिबीज का लाभ होने के लिए हंस का रूप धारणकर रानी को प्रस्तावोचित वचन से तथा तुझे स्वप्न दिखाकर बोध किया। इस रीति से भव्य प्राणी देवभव में होते हुए भी परभव में बोधिलाभ होने के निमित्त उद्यम करते हैं। अन्य कितने ही पुरुष मनुष्यभव में होते हुए भी पूर्वसंचित चिंतामणि रत्न समान बोधिरत्न (सम्यक्त्व) को खो बैठते हैं।
वह सम्यक्त्वधारी देव (धन्य का जीव) स्वर्ग से च्यवकर तुम दोनों का पुत्र हुआ। इससे माता को उत्तमोत्तम स्वप्न आये तथा श्रेष्ठ इच्छाएं (दोहद) उत्पन्न हुई, उसका यही कारण है कि, जैसे शरीर के साथ छाया, पति के साथ पतिव्रता स्त्री, चन्द्र के साथ चन्द्रिका, सूर्य के साथ उसका प्रकाश व मेघ के साथ बिजली जाती है वैसे ही इसके साथ पूर्वभव से जिनभक्ति आयी हुई है इसीसे स्वप्नादि उत्तम आये। कल इसे जिनमंदिर ले गये, तब बार-बार जिन प्रतिमा को देखने से तथा हंस के आगमन की बात सुनने से इसे मूर्छा आयी और तत्काल जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे पूर्वभव का सम्पूर्ण कृत्य इसे स्मरण हो आया। तब इसने अपने मन से ही ऐसा नियम लिया कि 'जिनेश्वर भगवान का दर्शन और वन्दन किये बिना मैं यावज्जीव मुख में कुछ भी नहीं डालूंगा।' नियम रहित धर्म की अपेक्षा से नियम सहित धर्म का अनन्तगुणा अधिक फल है. कहा है कि नियम सहित और नियम रहित ऐसा दो प्रकार का धर्म