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श्राद्धविधि प्रकरणम् यह कमल धारण करना योग्य है। इस लोक तथा परलोक में वांछित वस्तु के दाता वह अरिहंत की पूजा एक नवीन उत्पन्न हुई कामधेनु के समान है।' भद्रक स्वभाववाला धन्य, चारणमुनि के वचन से हर्षित हुआ, व पवित्र होकर जिनमंदिर में जाकर उसने वह कमल भाव से छत्र के समान भगवान् के मस्तक पर चढ़ाया। उस कमल से भगवान् का मस्तक इस तरह सुशोभित हो गया मानो मुकुट पहनाया हो। उससे धन्य को बहुत ही आनन्द उत्पन्न हुआ। पश्चात् वह स्वस्थ चित्तकर क्षणमात्र शुभभावना का ध्यान करने लगा। इतने में माली की वे चारों कन्याएं फूल बेचने के लिए वहां आयी। उन्हों ने धन्य का चढ़ाया हुआ कमल भगवान् के मस्तक पर देखा। इस शुभकर्म की अनुमोदना करके, उन चारों ने संपत्ति का मानो बीज ही हो ऐसा एक-एक श्रेष्ठ फूल उसी समय प्रतिमा पर चढ़ाया। ठीक है,शुभ अथवा अशुभ कर्म करना, पढ़ना, गुणना, देना, लेना, किसीको मान देना, शरीर सम्बंधी अथवा घर सम्बंधी कोई कार्य करना, इत्यादि कृत्यों में भव्य जीव की प्रवृत्ति प्रथम भगवान् का दर्शनकर के ही होती है। तदनंतर अपने जीव को धन्य मानता धन्य और वे चारों कन्याएं अपने-अपने घर गये।
उस दिन से धन्य यथाशक्ति नित्य भगवान् को वन्दना करने जाता, और ऐसी भावना भाता कि, 'जानवर की तरह निशदिन परतंत्रता में रहने से जिसको नित्य भगवान् को वन्दना करने का नियम भी नहीं लिया जाता, ऐसे मुझ अभागी को धिक्कार है!' अस्तु, कृपराजा, चित्रमति मंत्री, वसुमित्र श्रेष्ठी और सुमित्र वणिकपुत्र इन चारों व्यक्तियों ने चारण-मुनि के उपदेश से श्रावक-धर्म ग्रहण किया और क्रमशः वे सौधर्मदेवलोक को गये। धन्य भी अरिहंत पर भक्ति रखने से सौधर्म देवलोक में महर्द्धिक देवता हुआ और वे चारों माली की कन्याएँ उसके (धन्य के) मित्र देवता हुई। कृपराजाका जीव देवलोक से पतित होकर,जैसे स्वर्ग में देवराज इन्द्र है, वैसे वैताढ्य पर्वत पर स्थित गगनवल्लभ नगर में चित्रगति नामक विद्याधरों का राजा हुआ। मंत्री का जीव देवलोक से निकलकर चित्रगति का पुत्र हुआ। उस पर मातापिता बहुत ही स्नेह करने लगे। बाप से भी अधिक तेजस्वी उस पुत्र का नाम विचित्रगति रखा। विचित्रगति ने यौवनावस्था में आकर एक समय राज्य के लोभवश अपने बाप को मार डालने के लिए मजबूत व गुप्त विचार किया। धिक्कार है ऐसे पुत्र को! जो लोभान्ध हो पिता का अनिष्ट चिंतन करे! सुदैव वश गोत्रदेवी ने वह सर्व गुप्त विचार चित्रगति को कहा। अचानक भय आने से चित्रगति को उसी समय उज्ज्वल वैराग्य प्राप्त हुआ। और वह विचार करने लगा कि, हाय-हाय! अब मैं क्या करूं? किसकी शरण में जाऊं? किसको क्या कहूं? पूर्वभव में पुण्य उपार्जन नहीं किया, जिससे अपने ही पुत्र के द्वारा मेरे भाग्य में पशु के समान मृत्यु और दुर्गति पाने का प्रसंग आया, तो अब भी मुझे चेत जाना चाहिए। ऐसा विचारकर मन के अध्यवसाय निर्मल होने से उसने उसी समय पंचमुष्ठि लोच किया। देवताओं ने आकर साधु का वेष दिया। तब बुद्धिमान चित्रगति