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________________ 137 श्राद्धविधि प्रकरणम् था। वह धन्य एक दिन स्नान करने के लिए सरोवर पर गया। उत्तम कमल, सुन्दर शोभा और निर्मल जल वाले उस सरोवर में हाथी के बच्चे की तरह क्रीड़ा करते उसे दिव्यकमल के समान अत्यन्त सुगन्धित सहस्रपंखुड़ी वाला कमल मिला। उसे लेकर सरोवर में से बाहर निकलकर हर्ष से धन्य चलता हुआ मार्ग में फूल उतारकर जाती हुई माली की चार कन्याएँ उसको मिली। पूर्व परिचित होने से उन कन्याओं ने कमल गुण जानकर धन्य को कहा कि 'हे भद्र! भद्रशाल वन के वृक्ष का फूल जैसे यहां दुर्लभ है, वैसे ही यह कमल भी दुर्लभ है। यह श्रेष्ठ वस्तु श्रेष्ठपुरुषों के ही योग्य है, इसलिए इसका उपयोग ऐसे वैसे व्यक्ति पर मत करना' धन्य ने कहा 'इस कमल का उत्तम पुरुष पर ही मुकुट के समान उपयोग करूंगा।' पश्चात् धन्य ने विचार किया कि, 'सुमित्र ही सर्व सज्जनों में श्रेष्ठ है, और इसीलिए वे मेरे पूज्य हैं।' जिसकी आजीविका जिस मनुष्य से चलती हो उसे उस मनुष्य के अतिरिक्त क्या दूसरा कोई श्रेष्ठ लगता है ? अस्तु; सरलस्वभावी धन्य ने ऐसा विचारकर जैसे किसी देवता को भेंट करना हो, वैसे सुमित्र के पास जा विनयपूर्वक नमस्कारकर यथार्थ बात कहकर वह कमल भेट किया। तब सुमित्र ने कहा कि, 'मेरे सेठ वसुमित्र सर्व लोगों में उत्कृष्ट हैं। उन्हीं को यह उत्तम वस्तु वापरने योग्य है। उनके मुझ पर इतने उपकार हैं कि, मैं अहर्निश उनका दासत्व करूं तो भी उनके ऋण से मुक्त नहीं हो सकता ।' सुमित्र के ऐसा कहने पर धन्य ने वह कमल वसुमित्र को भेट किया। तब वसुमित्र ने भी कहा कि, 'इस लोक में मेरे सर्व कार्य सफल करनेवाला एक मात्र चित्रमति मंत्री सर्व श्रेष्ठ है।' तदनुसार धन्य ने वह कमल चित्रमति मंत्री को भेट किया, तो चित्रमति ने भी कहा कि, 'मेरी अपेक्षा कृप राजा श्रेष्ठ है, कारण कि, पृथ्वी तथा प्रजा का अधिपती होने से उसकी दृष्टि का प्रभाव भी दैवगति की तरह बहुत चमत्कारिक है। उसकी क्रूरदृष्टि जो किसी पर पड़े तो वह चाहे कितना ही धनी हो तो भी कंगाल के समान हो जाता है, और उसकी कृपादृष्टि जिस पर पड़े वह कंगाल हो तो भी धनी हो जाय।' चित्रमति के ये वचन सुन धन्य ने वह कमल राजा को दिया। राजा कृप भी जिनेश्वर भगवान् तथा सद्गुरु की सेवा में तत्पर था, इससे उसने कहा कि, 'जिसके चरण-कमल में मेरे समान राजा भ्रमर के सदृश तल्लीन रहते हैं, वे सद्गुरु ही सर्वश्रेष्ठ हैं, पर उनका योग स्वातिनक्षत्र के जल की तरह स्वल्प ही मिलता है।' राजा यह कह ही रहा था कि, इतने में सब लोगों को चकित करनेवाले कोई चारण मुनि देवता की तरह आकाश में से उतरे। बड़े आश्चर्य की बात है कि, आशारूपी लता किस प्रकार सफल हो जाती है ! राजादि सर्वलोकों ने सादर मुनिराज को आसन देकर, वन्दना आदि की व अपने-अपने उचित स्थान पर बैठ गये । पश्चात् धन्य ने विनयपूर्वक वह कमल मुनिराज को भेट किया। तब चारणमुनि ने कहा कि, 'जो तारतम्यता से किसी भी मनुष्य में श्रेष्ठत्व आता हो तो उसका अन्त अरिहंत में ही आना योग्य है। कारण कि, अरिहंत त्रिलोक में पूज्य हैं। अतएव तीनों लोक में उत्तम ऐसे अरिहंत को ही
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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