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श्राद्धविधि प्रकरणम्
135 तु कुपथ्य समान मिथ्यात्व को त्यागकर उत्तम पथ्य समान अर्हद्धर्म की आराधना कर, जिससे इस लोक में तथा परलोक में भी तेरे मनोरथ पूर्ण होंगे।'
यह कहकर पारे की तरह शीघ्र ही हंस कहीं उड़ गया। चकित हुई प्रीतिमती रानी पुनः पुत्र की आशा होने से प्रसन्न हुई। चित्त में कुछ दुःख हुआ हो तो धर्म,गुरु आदि पर अत्यन्त ही स्थिर आस्था रहती है। जीव का ऐसा स्वभाव होने से प्रीतिमती रानी ने सद्गुरु के पास से श्रावक धर्म अंगीकार किया। सम्यक्त्व धारण करनेवाली और त्रिकाल जिन-पूजा करनेवाली प्रीतिमती रानी अनुक्रम से सुलसा श्राविका के समान हो गयी। हंस की वाणी का मानो यह कोई महान् चमत्कारिक गुण है। अस्तु; एक समय राजधर राजा के चित्त में ऐसी चिन्ता उत्पन्न हुई कि, 'अभी तक पट्टरानी को एक भी पुत्र नहीं हुआ, और अन्य रानियों के तो सैंकडों पुत्र हैं। इसमें राज्य के योग्य कौनसा पुत्र होगा?' राजा इस चिन्ता में था, इतने में ही रात्रि को स्वप्न में मानो साक्षात् ही हो! ऐसे किसी दिव्यपुरुष ने आकर उसे कहा कि, 'हे राजन्! अपने राज्य के योग्य पुत्र की तू कुछ भी चिन्ता न कर। जगत् में कल्पवृक्ष के समान फलदायक ऐसे केवल जिनधर्म की ही तू आराधना कर। जिससे इसलोक परलोक में तेरी इष्ट सिद्धि होगी।' ऐसा स्वप्न देखने से राजधर राजा पवित्र होकर हर्ष से जिन-पूजादि से जिनधर्म की आराधना करने लगा। ऐसा स्वप्न देखने पर भला कौन प्रमाद करे? पश्चात् कोई उत्तम जीव ने, हंसजैसे सरोवर में अवतार लेता है. वैसे ही प्रथम अरिहंत की प्रतिमा स्वप्न में बताकर प्रीतिमती के गर्भ में अवतार लिया। इससे सर्वलोगों के मन में अपार हर्ष हुआ। गर्भ के प्रभाव से प्रीतिमती रानी को मणिरत्नमय जिनमंदिर तथा जिन-प्रतिमा कराना तथा उसकी पूजा करना इत्यादि दोहद' उत्पन्न हुए। फूल फल के अनुसार हो उसमें क्या विशेषता है?
देवताओं की कार्यसिद्धि मन में सोचते ही हो जाती है। राजाओं की कार्यसिद्धि मुख में से वचन निकलते ही होती है, धनवान लोगों की कार्यसिद्धि धन से तत्काल होती है, और शेष मनुष्यों की कासिद्धि वे स्वयं अंग परिश्रम करें तब होती है। अस्तु; प्रीतिमती का दोहद दुःख से पूरा किया जाय ऐसा था, किन्तु राजा ने बड़े हर्ष से तत्काल उसे पूर्ण किया। जिस प्रकार मेरुपर्वत के ऊपर की भूमि परिजातकल्पवृक्ष का प्रसव करती है, वैसे ही प्रीतिमती रानी ने प्रारंभ से ही शत्रु का नाश करनेवाला पुत्ररत्न प्रसव किया। अनुक्रम से वह बहुत ही महिमावन्त हुआ।
पुत्र जन्म सुनकर राजा को अत्यन्त हर्ष हुआ। इससे उसने उस पुत्र का अपूर्व जन्ममहोत्सव किया और उसका शब्दार्थको अनुसरता धर्मदत्त नाम रखा। एक दिन आनन्द से बड़े उत्सव के साथ पुत्र को जिनमंदिर में ले जाकर, अरिहंत की प्रतिमा को १. गर्भवती स्त्री को गर्भावस्था के समय जो इच्छा उत्पन्न होती है उसे दोहला कहते हैं।