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श्राद्धविधि प्रकरणम् धर्मदत्त का कथानक :
चांदी के जिनमंदिर से सुशोभित ऐसे राजपुर नगर में चन्द्रमा की तरह शीतकर' और कुवलयविकासी राजधर नामक राजा था। देवांगनाओं की रूप संपदा के समान सौन्दर्यवान् उस राजा के प्रीतिमती आदि पांचसो विवाहित रानियां थीं। प्रीतिमती रानी के अतिरिक्त शेष सब रानियों ने जगत् को आनन्दकारी पुत्र लाभ से चित्त को संतोष पाया, पर पुत्र न होने से वन्ध्या प्रीतिमती रानी बहुत ही दुःखित थी। पंक्तिभेद सहन करना कठिन है, और उसमें भी प्रमुख व्यक्ति का पंक्तिभेद हो तो वह बिलकुल ही असह्य है। अथवा जो वस्तु दैव के अधीन है, उसके विषय में मुख्य, अमुख्य का विचार करने से क्या लाभ हो सकता है? ऐसा होने पर भी उस बात से मन में दुःख धारण करनेवाले मूढ़ हृदय लोगों की मूर्खता को धिक्कार है! जब देवताओं की की हुई अनेक प्रकार की सभी मानताएं भी निष्फल हुई, तब तो प्रीतिमती का दुःख बहुत ही बढ़ गया। उपाय के निष्फल हो जाने पर, आशा सफल न होगी ऐसा जाना। एक समय हंस का बच्चा घर में बालक की तरह खेल रहा था,रानी ने उसे हाथ पर ले लिया तो भी मन में भय न रखते हंस ने मनुष्य-वाणी से रानी को कहा कि, 'हे भद्रे! मैं यहां यथेष्ट स्वतंत्रता से खेल रहा था, तू मुझे चतुर होकर भी खिलाने के रस से क्यों पकड़ती है? स्वतंत्र विहार करनेवाले जीवों को बन्धन में रहना निरन्तर मृत्यु के समान है। स्वयं वन्ध्या होते हुए भी पुनः ऐसा अशुभ-कर्म क्यों करती है? शुभकर्म से धर्म होता है, और धर्म से मनवांछित सफल होता है' प्रीतिमती ने चकित व भयभीत हो हंस से कहा कि, 'हे चतुर शिरोमणे! तू मुझे ऐसा क्यों कहता है? मैं तुझे थोड़ी देर में छोड़ दूंगी, परन्तु उसके पूर्व तुझे एक बात पूछती हूं कि, अनेक देवताओं की पूजा, अनेक प्रकार के दान आदि बहुत से शुभकर्म मैं हमेशा करती हूँ, तो भी शाप पायी हुई स्त्री की तरह मुझे संसार में सारभूत पुत्र क्यों नहीं होता?, पुत्र के लिए मैं दुःखी हूं यह तू कैसे जानता है, और मनुष्यवाणी से तु किस प्रकार बोलता है?' हंस बोला, 'मेरी बात पूछने का तुझे क्या प्रयोजन? मैं तुझे हितकारी वचन कहता हूं, धन, पुत्र, सुख आदि सर्व वस्तु की प्राप्ति पूर्वभव में किए हुए कर्म के अधीन हैं, इस लोक में किया हुआ शुभकर्म तो बीच में आते हुए अंतराय को दूर करता है। बुद्धिमान् मनुष्य जिस किसी देवता की पूजा करते हैं, वह मिथ्या है, और उससे मिथ्यात्व लगता है। एक मात्र जिनप्रणीत धर्म ही जीवों को इस लोक में तथा परलोक में वांछित-वस्तु का दाता है। जो जिन-धर्म से विघ्न की शान्ति आदि न हो तो वह अन्य उपाय से कैसे हो सकती है? जो अंधकार सूर्य से दूर नहीं हो सकता वह क्या अन्यग्रह से दूर हो सकता है? अतएव १. शीतकर पद का चंद्र तरफ 'ठंडी रश्मि का धारण करनेवाला' व राजा के तरफ 'लोगों से
शान्ति से कर लेनेवाला' ऐसा अर्थ होता है। कुवलय विकासी इस पद का चन्द्र तरफ 'कमल को खिलानेवाला' और राजा की ओर 'पृथ्वी को आनन्द देनेवाला' ऐसा अर्थ समझो।