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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 133 पूजा-वंदनादि अनुष्ठान करते मन में प्रीतिरस उत्पन्न हो, वह प्रीतिअनुष्ठान है। शुद्ध विवेकी भव्य जीव को बहुमान से पूजा-वंदनादि अनुष्ठान करते जो प्रीतिरस उत्पन्न हो तो वह भक्तिअनुष्ठान है। जैसे पुरुष अपनी माता का व स्त्री का पालन पोषण समान ही करता है, तो भी माता का पालनादिक भक्ति से (बहुमान से) करता है, और स्त्रीका पालनादिक प्रीति से करता है। वैसे ही यहां प्रीतिअनुष्ठान और भक्तिअनुष्ठान में भी भेद जानना। जिनेश्वर भगवान के गुणों का ज्ञाता भव्यजीव सूत्र में कही हुई विधि से जो वंदना करे, वह वचनअनुष्ठान जानना। यह वचनानुष्ठान चारित्रवान् पुरुष को नियम से होता है। फल की आशा न रखनेवाला भव्यजीव श्रुतावलम्बन बिना केवल पूर्वाभ्यास के रस से ही जो अनुष्ठान करता है, वह असंगअनुष्ठान है। यह जिनकल्पि आदि को होता है। जैसे कुम्हार के चक्र का भ्रमण प्रथम दंड के संयोग से होता है, वैसे वचनानुष्ठान आगंम से प्रवर्तता है। और जैसे दंड निकाल लेने पर भी पूर्वसंस्कार से चक्र फिरता रहता है वैसे ही आगम के केवल संस्कार से आगम की अपेक्षा न रखते असंगअनुष्ठान होता है, इतना भेद ही वचनअनुष्ठान में व असंगअनुष्ठान में होता है। प्रथम बालादिक को लेशमात्र प्रीति से ही अनुष्ठान संभव होता है, परंतु उत्तरोत्तर निश्चय से अधिक भक्ति आदि गुण की प्राप्ति होती है। अतएव प्रीति, भक्ति प्रमुख चारों प्रकार का अनुष्ठान प्रथम शाखा में कही हुई रुपये के अनुसार निश्चयपूर्वक जानना। कारण कि, पूर्वाचार्यों ने चारों प्रकार का अनुष्ठान मुक्ति के निमित्त कहा है। दूसरी शाखा में कहे हुए रुपये के समान धर्मानुष्ठान भी सम्यग्-धर्मानुष्ठान का कारण होने से बिलकुल ही दूषित नहीं है। कारण कि, पूर्वाचार्य कहते हैं कि, दंभकपटादि रहित भव्य जीव की अशुद्ध धर्म-क्रिया भी शुद्ध धर्म-क्रिया आदि का कारण होती है, और उससे अंदर स्थित निर्मल सम्यक्त्वरूपी रत्न कर्ममल का त्याग करता है। तीसरी शाखा में कहा हुआ धर्मानुष्ठान माया-मृषादि दोषयुक्त होने से खोटे रुपये से व्यवहार करने की तरह महान अनर्थ उत्पन्न करता है। यह (तीसरी शाखा में वर्णित रुपये समान) धर्मानुष्ठान प्रायः भवाभिनंदी जीवों को अज्ञान से अश्रद्धा से और भारेकर्मीपने से होता है। चौथी शाखा में कहे हुए रुपये के समान धर्मानुष्ठान तो निश्चय से विफल है, वह अभ्यास के वश से किसी समय एकाध जीव को शुभ के लिए होता है। जैसे किसी श्रावक का पुत्र कुछ भी पुण्यकर्म किये बिना केवल नित्य जिनबिंब को देखतेदेखते मृत्युको प्राप्त हुआ, और मत्स्य के भव में जाकर वहां प्रतिमाकार मत्स्य के दर्शन से सम्यक्त्व पाया। यह चौथी शाखा का दृष्टांत है। इस प्रकार देवपूजादिधर्मकृत्यों में एकांत से प्रीति व बहुमान हो तथा विधिपूर्वक क्रिया करे तो भव्यजीव यथोक्त फल पाता है, अतएव प्रीति, बहुमान और विधि विधान इन तीनों का पूरा-पूरा यत्न करना चाहिए, चालू विषय बहुमान एवं विधि पर धर्मदत्त राजा का दृष्टांत कहते हैं
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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