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श्राद्धविधि प्रकरणम् और सन्ध्या समय की हुई जिनपूजा सात जन्म के किये हुए पापों को दूर करती है। जलपान, आहार, औषध, निद्रा, विद्या, दान,कृषि ये सात वस्तुएं अपने-अपने समय पर हो तो श्रेष्ठ फल देती हैं; वैसे ही जिनपूजा भी अवसर पर ही की हो तो सत्फल देती है। त्रिकाल जिनपूजा करनेवाला भव्यजीव समकित को शोभित करता है, और श्रेणिकराजा की तरह तीर्थंकर नामगोत्रकर्म उपार्जन करता है। जो पुरुष दोषरहित जिन-भगवान् की त्रिकाल पूजा करता है, वह तीसरे अथवा सातवें आठवें भव में सिद्धि सुख पाता है। चौसठ इन्द्र परम आदर से पूजा करते हैं, तो भी भगवान् यथार्थ नहीं पूजे जाते। कारण कि भगवान के गुण अनन्त हैं। हे भगवन्! हम आपको नेत्र से देख सकते नहीं, और उत्तमोत्तम पूजा से परिपूर्णतः आपकी आराधना भी नहीं कर सकते; परन्तु गुरुभक्ति रागवश व आपकी आज्ञा पालने के हेतु से पूजादिक में प्रवृत्ति करते हैं। विधि-बहुमान : ____ देव पूजादि शुभ कृत्य में प्रीति बहुमान और सम्यग् विधिविधान इन दोनों में खरे खोटे रुपये के दृष्टान्त के अनुसार चार शाखाएं हैं, यथा
खरी चांदी और खरा सिक्का यह प्रथम शाखा, खरी चांदी और खोटी मुद्रा (सिक्का) यह दूसरी शाखा, खरा सिक्का और खोटी चांदी यह तीसरी शाखा तथा खोटी ही चांदी व खोटा ही सिक्का यह चौथी शाखा है। इसी प्रकार देवपूजादि कृत्यों में भी उत्तम बहुमान व उत्तम विधि हो तो प्रथम शाखा, उत्तम बहुमान हो परन्तु विधि उत्तम न हो तो दूसरी शाखा, विधि उत्तम हो परन्तु बहुमान उत्तम न हो तो तीसरी शाखा और बहुमान व विधि दोनों ही उत्तम न हो तो चौथी शाखा जानना। बृहद्भाष्य में कहा है कि इस वन्दना में पुरुष के चित्त में स्थित बहुमान चांदी के समान है,
और संपूर्ण बाह्यक्रिया सिक्केके समान है। बहुमान और बाह्य क्रिया इन दोनों का योग मिल जाये तो खरे रुपये की तरह उत्तम वन्दना जानना। मन में बहुमान होने पर भी प्रमाद से वंदना करनेवाले की वन्दना दूसरी शाखा में कहे हुए रुपये के समान है। किसी वस्तु के लाभार्थ संपूर्ण बाह्यक्रिया उत्तम होने पर भी बहुमान न हो वह वन्दना तीसरी शाखा में कहे हुए रुपये के समान है। मन में बहुमान न हो
और बाह्य क्रिया भी बराबर न हो तो इस तत्त्व से वन्दना नहीं के बराबर है। मन में बहुमान रखनेवाले पुरुष को देशकाल के अनुसार थोड़ी अथवा अधिक वन्दना विधिपूर्वक करना यह भावार्थ है। अनुष्ठान के चार भेद : ____ इस जिनमत में धर्मानुष्ठान चार प्रकार का कहा है। एक प्रीतिअनुष्ठान, दूसरा भक्तिअनुष्ठान, तीसरा वचनअनुष्ठान और चौथा असंगअनुष्ठान, बालादिक की जैसी रत्न में प्रीति होती है, वैसे ही सरलप्रकृति पुरुष की जो