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________________ 131 श्राद्धविधि प्रकरणम् ___ 131 एक बड़ा भारी अवलम्बन है। स्थेयो वायुचलेन निवृत्तिकरं निर्वाणनिर्घातिना। स्वायत्तं बहुनायकेन सुबहु स्वल्पेन सारं परम्। निस्सारेण धनेन पुण्यममलं कृत्वा जिनाभ्यर्चनं। यो गृह्णाति वणिक् स एव निपुणो वाणिज्यकर्मण्यलम् ।।२।। जो वणिक् वायु के समान चंचल, निर्वाण का अंतराय करनेवाले, बहुत से नायकों के अधीन रहे हुए, स्वल्प व असार ऐसे धन से स्थिर, मोक्ष को देनेवाला स्वतंत्र अत्यंत व सारभूत ऐसी जिनेश्वर भगवान् की पूजा करके निर्मल पुण्य उपार्जित करता है, वही वणिक् वाणिज्य कर्म में अतिनिपुण है। दर्शन पूजन का फल : यास्याम्यायतनं जिनस्य लभते ध्यायंश्चतुर्थं फलं, षष्टं चोत्थित उद्यतोऽष्टममथो गंतुं प्रवृत्तोऽध्वनि। श्रद्धालुर्दशमं बहिर्जिनगृहात्प्राप्तस्ततो द्वादशं, मध्ये पाक्षिकमीक्षिते जिनपतौ मासोपवासं फलम् ।।३।। श्रद्धावन्त मनुष्य 'जिनमंदिर को जाऊंगा' ऐसा विचार करने से एक उपवास का, जाने के लिए उठते छट्ठ का, जाने का निश्चय करते अट्ठम का, मार्ग में जाते चार उपवास का, जिनमंदिर के बाहर भाग में जाते पांच उपवास का, मंदिर के अन्दर जाते पंद्रह उपवास का और जिनप्रतिमा का दर्शन करते एक मास के उपवास का फल प्राप्त करता पद्मचरित्र में तो इस प्रकार कहा है कि-(तीर्थादि में) श्रद्धावन्त श्रावक 'जिनमंदिर को जाऊंगा' ऐसा मन में विचार करने से एक उपवास का,मार्गको जाने से तीन उपवास का, जाने से चार उपवास का, थोड़ा मार्ग उल्लंघन करने से पांच उपवास का, आधा मार्ग जाने से पंद्रह उपवास का,जिनभवन का दर्शन करने से एक मास के उपवास का, जिनमंदिर के आंगने में प्रवेश करने से छः मास के उपवास का, मंदिर के बाहर जाते बारह मास के उपवास का, प्रदक्षिणा देने से सो वर्ष के उपवास का, जिनप्रतिमा की पूजा करने से हजार वर्ष के उपवास का फल प्राप्त करता है, और भगवान् की स्तुति करने से अनन्त पुण्य प्राप्त करता है। प्रमार्जन करते सौ उपवास का, विलेपन करते हजार उपवास का, माला पहनाते लाख उपवास का, और गीत, वाजिंत्र द्वारा पूजा करते अनन्त उपवास का फल पाता है। तीन संध्या की पूजा का फल : पूजा प्रतिदिन तीन बार करनी चाहिए। कहा है कि प्रातःकाल में की हुई जिनपूजा रात्रि में किये हुए पापों का नाश करती है, मध्याह्न समय में की हुई जिनपूजा जन्म से लेकर अभी तक किये हुए पापों को नष्ट करती है,
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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