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________________ 130 श्राद्धविधि प्रकरणम् आज्ञा है। स्वीकाररूप आज्ञा की अपेक्षा परिहाररूप आज्ञा श्रेष्ठ है, कारण कि, निषिद्ध प्राणातिपात आदि सेवन करनेवाला मनुष्य चाहे कितना ही शुभ कर्म करे, तो भी उससे विशेष गुण नहीं होता। जैसे रोगी मनुष्य के रोग की चिकित्सा औषधि के स्वीकार व अपथ्य के परिहार इन दो रीति से की जाती है। रोगी को बहुत सारी औषधि देते हुए भी जो वह अपथ्य करे तो उसे आरोग्यलाभ नहीं होता। कहा है कि बिना औषधि के केवल पथ्य से ही व्याधि चली जाती है, परंतु पथ्य न करे तो सैंकडों औषधियों से भी व्याधि नहीं जा सकती। इसी प्रकार जिन भगवान् की भक्ति भी निषिद्ध आचरण करनेवाले को विशेष फलदायक नहीं होती। जैसे पथ्य सेवन करनेवाले को औषधि से आरोग्य लाभ होता है, वैसे ही स्वीकाररूपी और परिहाररूपी दोनों आज्ञाओं का योग हो तो फल सिद्धि होती है। श्री हेमचन्द्रसूरि ने भी कहा है कि, हे वीतराग भगवान्! आपकी सेवा पूजा करने से भी आपकी आज्ञा का पालन करना ही श्रेष्ठ है कारण, कि आज्ञा का आराधन और विराधन ये दोनों क्रम से मोक्ष और संसार को देते हैं यानि आपकी सेवा हो तब ही मोक्ष हो अन्यथा न हो ऐसा नहीं है लेकिन आज्ञा के विषय में तो आज्ञा की आराधना से ही मोक्ष है अन्यथा संसारभ्रमण हो यह निश्चित है। हे वीतराग! आपकी आज्ञा सर्वदा त्याज्य वस्तु के त्यागरूप और ग्राह्यवस्तु के आदररूप होती है। द्रव्यस्तव-भावस्तव का फल : पूर्वाचार्यों ने द्रव्यस्तव तथा भावस्तव का फल इस प्रकार कहा है-द्रव्यस्तव की उत्कृष्टता से आराधना की हो तो प्राणी बारहवें अच्युत देवलोक तक जाता है, और भावस्तव की उत्कृष्टता से आराधना की हो तो अंतर्मुहूर्त में निर्वाण को प्राप्त होता है। द्रव्यस्तव करते यद्यपि कुछ षट्कायजीवों की उपमर्दनादिक से विराधना होती है, तथापि कुएँ के दृष्टान्त से गृहस्थजीव को वह (द्रव्यस्तव) करना उचित है। कारण कि, उससे कर्ता (द्रव्यस्तव करनेवाला), दृष्टा (द्रव्यस्तव को देखनेवाला), और श्रोता (द्रव्यस्तव का सुननेवाला) इन तीनों को अगणित पुण्यानुबंधि पुण्य का लाभ होता .. कुएँ का दृष्टान्त इस प्रकार है-एक नये गांव में लोगों ने कुआ खोदना शुरू किया, तब उनको तृषा, थकावट, कीचड़ से मलिनता आदि सहन करना पड़ा। परन्तु जबकुएँ में से जल निकला, तब केवल उन्हीं की तृष्णादिक तथा शरीर और वस्त्र आदि वस्तु पर चढ़ा हुआ मेल दूर हुआ, इतना ही नहीं, बल्कि अन्य सर्व लोगों का भी तृषादिक और मल दूर हो गया, और नित्य के लिए सर्व प्रकार से सुख हो गया। ऐसा ही द्रव्यस्तव की बात में भी जानना। आवश्यकनियुक्ति में कहा है कि सर्वविरति न पाये हुए देशविरति जीवों का संसार कम करनेवाला यह द्रव्यस्तव कुएँ के दृष्टान्तानुसार उत्तम है। अन्य स्थान पर भी कहा है कि आरंभ में लिपटे हुए, षट्कायजीवों की विराधना से विरति न पाये हुए और इसीसे संसार वन में पड़े हुए जीवों को द्रव्यस्तव ही
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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