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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 129 कुंतला रानी : अवनिपुर में जितशत्रु राजा की अत्यंत धर्मनिष्ठ कुंतला नामक पट्टरानी थी। वह दूसरों को धर्म में प्रवृत्त करानेवाली थी, अतएव उसके वचन से उसकी सर्व सपत्नियां (सौते) धर्मनिष्ठ हो गयी तथा कुंतला को बहुत मानने लगी। एक समय सर्व रानियों ने अपने-अपने पृथक् सर्व अंगोपांगयुक्त नये जिनमंदिर तैयार करवाये। जिससे कुंतला रानी के मन में बहुत ही ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वह अपने मंदिर में ही उत्तम पूजा, गीत नाटक आदि करती और अन्य रानियों की पूजा आदि से द्वेष करने लगी। बड़े खेद की बात है कि, मात्सर्य कैसा दुस्तर है? कहा है कि पोता अपि निमज्जन्ति, मत्सरे मकराकरे। . तत्तत्र मज्जनेऽन्येषां, दृषदामिव किं नवम्? ।।१।। विद्यावाणिज्यविज्ञानवृद्धिऋद्धिगुणादिषु। जातौ ख्याती प्रोन्नती च, धिग् धिग् धर्मेऽपि मत्सरः ।।२।। मात्सर्यरूपी सागर में ज्ञानीपुरुष की नौका भी डूब जाती है। तो फिर पत्थर के समान अन्य जीव डूब जाये इसमें क्या विशेषता है? विद्या, व्यापार, कलाकौशल, वृद्धि, ऋद्धि,गुण, जाति, ख्याति, उन्नति इत्यादिक में मनुष्य, मात्सर्य (अदेखाई) करें वह बात अलग है, परंतु धर्म में भी मात्सर्य करते हैं! उन्हें धिक्कार है!!! सपत्नियां सरल स्वभावी होने से वे सदैव कुंतला रानी के पूजादि शुभकर्म की अनुमोदना करती थीं, ईर्ष्या से भरी हुई कुंतला रानी तो दुर्दैववश असाध्यरोग से पीड़ित हुई, राजा ने उसके पास की आभरणादि सर्व मुख्य-मुख्य वस्तुएं ले ली, पश्चात् वह बहुत असह्य वेदना से मृत्युको प्राप्त होकर सपत्नियों की पूजा का द्वेष करने से कुत्ती हुई, वह पूर्वभव के अभ्यास से अपने चैत्य के द्वार में बैठी रहती थी। एक समय वहां केवली का आगमन हुआ। रानियों ने केवली से पूछा कि, 'कुंतला रानी मरकर किस गति में गयी? केवली ने यथार्थ बात थी वह कह दी। जिससे रानियों के मन में बहत वैराग्य उत्पन्न हुआ। वे नित्य उस कुत्ती को खाने-पीने को देती और स्नेह से कहती कि, 'हा हा! धर्मिष्ठ! तूने क्यों ऐसा व्यर्थ द्वेष किया जिससे तेरी यह अवस्था हुई?' ये वचन सुन तथा अपने चैत्य को देखकर उसे (कुत्ती को) जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। तब संवेग पाकर उसने सिद्धादिक की साक्षी से अपने किये हुए दोष आदि अशुभ कर्मों की आलोचना की, और अनशनकर मृत्यु को प्राप्त होकर वैमानिक देवता हुई। द्वेष के ऐसे कड़वे फल हैं। इसलिए द्वेष को त्याग देना चाहिए। यह सब द्रव्यपूजा का अधिकार कहा। आज्ञा पालन का महत्व : इस जगह सर्व भावपूजा और जिनेश्वर की आज्ञा पालन इसे भावस्तव जानना। जिनाज्ञा भी स्वीकाररूप तथा परिहाररूप ऐसी दो प्रकार की है। जिसमें शुभकर्म का सेवन करना वह स्वीकाररूप आज्ञा है और निषिद्ध का त्याग करना वह परिहाररूप
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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