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________________ 124 श्राद्धविधि प्रकरणम् लाभ होता है। आगम में कहा है कि जीवाण बोहिलाभो, समद्दिट्ठीण होइ पिअकरणं। आणा जिणिंदमत्ती, तित्थस्स पभावणा चेव ॥१॥ (द्रव्यस्तव से) भव्यजीवों को बोधिलाभ होता है, सम्यग्दृष्टि जीवों का प्रिय किया ऐसा होता है, भगवान् की आज्ञा का पालन होता है, जिनेश्वर भगवान् की भक्ति होती है और शासन की प्रभावना होती है, इस तरह द्रव्यस्तव में अनेक गुण हैं, अतएव वही करना चाहिए। दिनकृत्य सूत्र में भी कहा है कि इस प्रकार यह सर्व विधि ऋद्धिवन्त श्रावक की कही। सामान्य श्रावक तो अपने घर पर ही सामायिक लेकर जो किसी का देना न हो, और किसी के साथ विवाद न हो तो साधु की तरह उपयोग से जिनमंदिर को जाये। कारणं अस्थि जइ किंचि, कायव्वं जिणमंदिरे। ... तओ सामाइअंमोत्तुं, करे जंकरणिज्जयं ॥१॥ जो जिनमंदिर में काया से बन सके ऐसा कोई कार्य हो तो सामायिक पारकर जो कार्य हो वह करे। सूत्रगाथा में 'विधिना' ऐसा पद है, उससे भाष्यादि ग्रंथ में चौबीस मूल द्वार से और दो हजार चौहत्तर प्रतिद्वार से कही हुई, दशत्रिक तथा पांच अभिगम आदि सर्व विधि इस स्थान पर लेना। यथा—१ तीन' निसीहि, २ तीन' प्रदक्षिणा, ३ तीन' प्रणाम,४ त्रिविध पूजा, ५ अरिहंत की तीन अवस्था की भावना, ६ तीन दिशा देखने से विमुख रहना,७ पग' के नीचे की भूमि तीन बार पुंजना, ८ तीन ‘वर्णादिक, ९ १. तीन निसीहि इस प्रकार-मंदिरके मूलद्वार में प्रवेश करते अपने घर संबंधी व्यापार का त्याग करने रूप प्रथम निसीहि है १, गभारे के अन्दर प्रवेश करते मंदिर को पूंजने समारने के कार्य का त्याग करने रूप दूसरी निसीहि है २, चैत्यवंदन करते समय द्रव्य पूजा का त्याग करनेरूप तीसरी निसीहि है । जिनप्रतिमा की दाहिनी ओर से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधनारूप तीन प्रदक्षिणा देना। ३. तीन प्रकार के प्रणाम इस प्रकार-जिनप्रतिमा को देखते ही दोनों हाथ जोड़कर ललाट को लगाकर प्रणाम करना, यह प्रथम अंजलिबद्ध प्रणाम १,कमर के ऊपर का भाग कुछ नमाकर प्रणाम करना यह दूसरा अर्धावनतप्रणाम २, दोनों घुटने, दोनों हाथ और मस्तक ये पंचांग नमाकर खमासमण देना यह तीसरा पंचांग प्रणाम ३। ४. तीन प्रकार की पूजा-भगवान् के अंग पर केशर, चंदन, पुष्प आदि चढ़ाना वह प्रथम अंगपूजा १; धूप,दीप और नैवेद्यादि भगवान के सन्मुख रखना वह दूसरी अग्रपूजा २; भगवान के संमुख स्तुति, स्तोत्र, गीतगान नाटक आदि करना वह तीसरी भावपूजा ३। ५. तीन अवस्था-पिंडस्थ अर्थात् छद्मस्थावस्था १; पदस्थ अर्थात् केवलीअवस्था २; रूपस्थ अर्थात् सिंद्धावस्था ३। ६. जिस दिशा में जिनप्रतिमा हो उसे छोड़ अन्य तीन दिशाओं को न देखना। ७. चैत्यवंदनादिक करते पग रखने की भूमि तीन बार पुंजना। ८. नमुत्थुणं आदि सूत्र शुद्ध बोलना १; उसके अर्थ विचारना २; जिन प्रतिमा का स्वरूप-आलंबन धारना ३।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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