SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 125 श्राद्धविधि प्रकरणम् तीन 'मुद्रा और १० त्रिविध प्रणिधान, ये दश त्रिक हैं। इत्यादि विधिपूर्वक किया हुआ देवपूजा, देववंदन आदि धर्मानुष्ठान महान् फलदायी है। और विधिपूर्वक न करे तो अल्प फल होता है, वैसे ही अतिचार लगे तो प्रायः श्रेष्ठ फल के बदले उलटा अनर्थ उत्पन्न होता है,कहा है कि धर्मानुष्ठानवैतथ्यात्, प्रत्यपायो महान् भवेत्। रौद्रदुःखौघजननो, दुष्प्रयुक्तादिवौषधात् ।।१।। जैसे औषधि अविधि से दी जाय तो उलटा अनर्थ हो जाता है, वैसे ही धर्मानुष्ठान में अविधि हो तो नरकादिक के दुःख समुदाय उत्पन्न करनेवाला बड़ा अनर्थ होता है। चैत्यवंदन आदि धर्मानुष्ठान में अविधि हो तो सिद्धांत में उसका प्रायश्चित्त भी कहा है। महानिशीथसत्र के सातवें अध्ययन में कहा है कि जो अविधि से चैत्यवंदन करे, तो उसे प्रायश्चित्त लगता है कारण कि, अविधि से चैत्यवंदन करनेवाला पुरुष अन्य साधर्मिकों को अश्रद्धा उत्पन्न करवाता है। देवता, विद्या और मंत्र की आराधना भी विधि से करने से ही फल सिद्धि होती है, अन्यथा तत्काल अनर्थादि होते हैं। यथा अयोध्या नगरी में सुरप्रिय नामक यक्ष था। प्रतिवर्ष यात्रा के दिन उसका यक्षायतन जो रंगाया जाता था तो रंगनेवाले चित्रकार को मार डालता था, और न रंगाया जाता था तो नगरवासियों को मारता था। उस भय से चित्रकार नगर से भागने लगे। तब राजा ने परस्पर जमानत आदि देकर सब चित्रकारों को मानो बंदी की तरह नगर में रखे। पश्चात् यह नियम किया कि एक घड़े में सबके नाम की चिट्ठी डालें उसमें से जिसके नाम की चिट्ठी निकले, वही यक्षातन में यक्ष की मूर्ति एवं यक्षायतन को रंगे। एक वक्त किसी वृद्ध स्त्री के पुत्र के नाम की चिट्ठी निकली। इतने में कुछ दिन से कोशंबीनगरी से अतिथि के रूप में एक चित्रकार का पुत्र उसके घर आया हुआ था, उसने 'निश्चय अविधि से यक्ष रंगा जाता है' ऐसा विचारकर वृद्ध स्त्री को दृढ़ता से कहा कि-'मैं यक्ष को रंगूंगा' तदनंतर उसने छ? तप किया, शरीर, वस्त्र, तरह-तरह के रंग, कलमें (ब्रश) आदि सर्व वस्तुएं पवित्र देखकर ली, मुख पर आठपट का मुखकोष बांधा और अन्य भी उपयोग करके विधिपूर्वक उस यक्ष के चित्र को रंगा, और पांव छूकर खमाया। इससे सुरप्रिय यक्ष बड़ा ही प्रसन्न हुआ और वरदान मांगने को कहा, ९. दोनों हाथों की दशों अंगुलियां परस्पर मिलाकर कमल के डोड़े के आकार से हाथ जोड़ पेट पर कोहनी रखना यह प्रथम योगमुद्रा १; दोनों पैर की अंगुलियों के बीच में आगे से चार अंगुल का और पीछे से कुछ कम अन्तर रख काउस्सग्ग करना, यह दूसरी जिनमुद्रा २; दोनों हाथ मिलाकर ललाट को लगाना, यह तीसरी मुक्ताशुक्तिमुद्रा ३।। १०. तीन प्रणिधान-'जावंति चेइयाई' इस गाथा से चैत्यवंदन करनेरूप प्रथम प्रणिधान १; 'जावंत केवि साहू' इस गाथा से गुरु को वंदन करनेरूप दूसरा प्रणिधान २; 'जय वीयराय' कहनेरूप तीसरा प्रणिधान ३; अथवा मन वचन और काया का एकाग्र करना ये तीन प्रणिधान जानो।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy