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________________ 122 श्राद्धविधि प्रकरणम् की ही साधना करती है। 'गणधरों की सामाचारी में भी बहुत भेद होते हैं, इसलिए जिस-जिस आचरण से धर्मादिक को विरोध न आवे, और अरिहंत की भक्ति की पुष्टि हो वह आचरणा किसीको भी अस्वीकार नहीं। यही न्याय सर्व धर्मकृत्यों में जानना । इस पूजा के अधिकार में लवण, आरती आदि का उतारना संप्रदाय से सभी गच्छ में तथा पर- दर्शन में भी सृष्टि (दाहिनी ओर ) से ही कराता दृष्टि आ रहा है। श्री जिनप्रभसूरि रचित पूजाविधि में तो इस प्रकार है कि - पादलिप्तसूरि आदि पूर्वाचार्यों ने लवणादिक का उतारना संहार से करने की अनुज्ञा दी है, तो भी सांप्रत सृष्टि (दाहिनी ओर) से ही किया जाता है। स्नात्र करने में सर्व प्रकार की सविस्तार पूजा तथा ऐसी प्रभावना इत्यादि होने का संभव है, कि जिससे परलोक में उत्कृष्टफल प्रकट है। तथा जिनेश्वर भगवान् के जन्मकल्याणक के समय स्नात्र करनेवाले चौसठ इन्द्र तथा उनके सामानिक देवता आदि का अनुकरण यहां मनुष्य करते हैं, यह इस लोक में भी फलदायक है । इति स्नात्रविधि । प्रतिमाएं विविध प्रकार की हैं, उनकी पूजा करने की विधि में सम्यक्त्व प्रकरण ग्रंथ में इस प्रकार कहा है कि - गुरुकारिआइ केई, अन्ने सयकारिआइ तं बिंति । विहिकारिआइ अन्ने, पडिमा पूअणविहाणं ॥ १ ॥ अर्थात: बहुत से आचार्य गुरु अर्थात् मा, बाप, दादा आदि लोगों ने करायी हुई प्रतिमा की, तथा दूसरे बहुत से आचार्य स्वयं करायी हुई प्रतिमा की तथा दूसरे आचार्य विधिपूर्वक की हुई प्रतिमा की पूजा करना ऐसा कहते हैं। परंतु अंतिमपक्ष में यह निर्णय है कि, बाप, दादा ने करायी हुई यह बात निरर्थक है इसलिए ममत्व तथा कदाग्रह को त्यागकर सर्व प्रतिमाओं को समानबुद्धि से पूजना। कारण कि, सर्व - प्रतिमाओं में तीर्थंकर का आकार है, जिससे ' यह तीर्थंकर है' ऐसी बुद्धि उत्पन्न होती है। ऐसा न करते अपने कदाग्रह से अरिहंत की प्रतिमा की भी अवज्ञा करते हैं तो बलात्कार दुरंत संसाररूप दंड भोगना पड़ता है, जो ऐसा करे तो अविधि से की हुई प्रतिमा की भी पूजन करने का प्रसंग आता है, जिससे अविधिकृत प्रतिमा में अनुमति देने से भगवान् की आज्ञाभंग करने का दोष आता है ऐसा कुतर्क नहीं करना, कारण कि सभी प्रतिमा को मानने का आंगम में प्रमाण है। श्रीकल्पभाष्य में कहा है किनिस्सकड्मनिस्सकडे, चेइए सव्वहिं थुई तिन्नि। वेलं च चेइआणि अ, नाउं इक्किक्किआ वावि ॥ १ ॥ अर्थ ः निश्राकृत अर्थात गच्छ प्रतिबद्ध और अनिश्राकृत अर्थात् गच्छप्रतिबन्ध १. श्राद्धविधि प्रकरण विधि कौमुदी वृत्ति पेज नं. १३२
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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