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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 121 इत्यादि पाठ कहकर जिनेश्वर भगवान् के ऊपर से तीन बार फूल सहित लवण जल उतारना आदि करना। तत्पश्चात् आरती करना । वह इस प्रकार — आरती के समय धूप करना, दोनों दिशाओं में ऊंची और अखंड कलशजल की धारा देना । श्रावकों को फूल बिखेरना । श्रेष्ठपात्र में आरती रखकर 'मरगयमणिघडियविसालथालमणिक्कमंडिअपईवं । ण्हवणयरकरुक्खित्तं, भमउ जिणारत्तिअं तुम्ह ॥१॥ इत्यादि पाठ कहकर प्रधानपात्र में रखी हुई आरती तीन बार उतारना । त्रिषष्ठीयचरित्रादि ग्रंथ में कहा है कि - पश्चात् इन्द्र ने कृतकृत्यपुरुष की तरह कुछ पीछे सरक के पुनः आगे आकर भगवान् की आरती ग्रहण की। जलते हुए दीपों की कान्ति से शोभायमान आरती हाथ में होने से, देदीप्यमान औषधि के 'समुदाय से चमकते हुए शिखर से सुशोभित इन्द्र मेरुपर्वत के समान दृष्टि आया। श्रद्धालु देवताओं के पुष्प वृष्टि करते हुए इन्द्र ने भगवान् के ऊपर से तीन बार आरती उतारी। मंगलदीप भी आरती की तरह पूजा जाता है। 'कोसंबिसंठिअस्स व, पयाहिणं कुणइ मउलिअपईवो । जिण! सोमदंसणे दिणयरुव्व तुह मंगलपईवो ॥ १ ॥ 'भामिज्जतो सुरसुंदरीहिं तुह नाह! मंगलपईवो । कणयायलस्स नज्जइ, भाणुव्व पयाहिणं दिंतो ॥२॥ इसका पाठ कहकर मंगलदीप आरती के अनुसार उतारकर देदीप्यमान ऐसा ही जिन भगवान् के संमुख रखना। आरती तो बुझा दी जाती है। उसमें दोष नहीं । मंगलदीप तथा आरती आदि मुख्यतः तो घी, गुड़, कपूर आदि वस्तु से किये जाते हैं। कारण कि, ऐसा करने में विशेष फल है। लोक में भी कहा है कि - भक्तिमान पुरुष देव के सन्मुख कर्पूर का दीप प्रज्वलित करके अश्वमेघ का पुण्य पाता है तथा कुल का भी उद्धार करता है। यहां 'मुक्तालंकार' इत्यादि गाथाएं हरिभद्रसूरिजी की रची हुई होंगी ऐसा अनुमान किया जाता है, कारण कि, उनके रचे हुए समरादित्य चरित्र के आरंभ में 'उवणेउ मंगलं वो' ऐसा नमस्कार दृष्टि आता है। ये गाथाएं तपापक्ष आदि गच्छ में प्रसिद्ध हैं, इसलिए मूलपुस्तक में सब नहीं लिखी गयी। स्नात्र आदि धर्मानुष्ठान में सामाचारी के भेद से नानाविध विधि दिखती हैं, तो भी उससे भव्यजीव को मनमें व्यामोह (मुंझाना, घबराना) नहीं करना । कारण कि सबको अरिहंत की भक्ति रूप धर्म १. मरकत और मणियों का बड़े थाल में माणिक्य जैसा दीपक जिसमें है वैसी और स्नात्रकार ने हाथ में ली हुई आरती हे जिनेश्वर ! आपके आगे फिरो । २. सौम्य दृष्टिवंत ऐसे हे जिनचन्द्र ! जैसे कोशांबी में रहे हुए आपके दर्शन में सूर्य ने आकर प्रदक्षिणा की थी वैसे ही कलिका समान दीपवाला यह मंगलदीप आपको प्रदक्षिणा करता है। ३. हे नाथ! देवियों का घुमाया हुआ आपका मंगलदीप मेरु को प्रदक्षिणा करते सूर्य के समान दिखता है।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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