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________________ 112 श्राद्धविधि प्रकरणम् है, कारण कि, साधारण धान्य तथा विशेषकर पकाया हुआ धान्य जगत् का जीवन होने से सर्वोत्कृष्ट रत्न कहा जाता है, इसीलिए वनवास से आने पर रामचन्द्रजी ने महाजन से अन्न की कुशलता पूछी थी। कलह का अभाव और प्रीति आदि परस्पर भोजन कराने से दृढ़ होते हैं। विशेषकर देवता भी नैवेद्य से ही प्रसन्न होते हैं। सुनते हैं कि अग्निवैताल सो मूड़ा धान्य के नैवेद्य आदि से ही विक्रमराजा के वश में हुआ था। भूत, प्रेत, पिशाच आदि भी खीर, खिचड़ी,बडां इत्यादि अन्न का ही उतारा आदि मांगते हैं, वैसे ही दिक्पाल का तथा तीर्थंकर का उपदेश होने के अनन्तर जो बलि कराया जाता है वह भी अन्न से ही कराते हैं। नैवेद्य पूजा का प्रण : एक निर्धन कृषक साधु के वचन से समीपस्थ जिनमंदिर में प्रतिदिन नैवेद्य धरता था। एक दिन देर हो जाने से अधिष्ठायक यक्ष ने सिंह के रूप से तीन भिक्षु बताकर उसकी परीक्षा की। परीक्षा में निश्चल रहा इससे संतुष्ट यक्ष के वचन से सातवें दिन स्वयंवर में कन्या, राजजय और राज्य ये तीनों वस्तुएं उसे मिली। लोक में भी कहा है कि धूपो दहति पापानि, दीपो मृत्युविनाशनः। ... नैवेद्ये विपुलं राज्यं, सिद्धिदात्री प्रदक्षिणा ।।१।। धूप पापों को भस्म कर देता है, दीप मृत्युको नाश करता है, नैवेद्य देने से विपुल राज्य मिलता है और प्रदक्षिणा से कार्यसिद्धि होती है। अन्न आदि सर्व वस्तुएं उत्पन्न होने का कारण होने से जल अन्नादिक से भी अधिक श्रेष्ठ है। इसलिए वह भी भगवान् के सन्मुख धरना। नैवेद्य धरने का एवं आरती आदि करने का आगम में भी कहा है। आवश्यकनियुक्ति में कहा है कि-'कीरइ बली' याने 'बलि की जाती है' इत्यादि, निशीथ में भी कहा है कि उसके अनन्तर प्रभावती रानी बलि आदि सर्व करके कहा कि 'देवाधिदेव वर्द्धमानस्वामी की प्रतिमा हो तो प्रकट हो।' ऐसा कहकर (पेटी ऊपर) कुल्हाड़ा पटका। जिससे (पेटी के) दो भाग हुए और उसके अन्दर सर्व अलंकारों से सुशोभित भगवन्त की प्रतिमा देखने में आयी। निशीथपीठिका में भी कहा है कि बलि अर्थात् उपद्रव शमन के हेतु कूर (अन्न) किया जाता है। निशीथचूर्णि में भी कहा है कि संप्रति राजा रथयात्रा करने से पूर्वे विविध प्रकार के फल, मिठाई,शालिदालि, कोड़ा, वस्त्र आदि भेंट करता है। कल्प में भी कहा है कि साहम्मिओ न सत्था, तस्स कयं तेण कप्पइ जईणं। जं पुण पडिमाण कए, तस्स कहा का अजीवत्ता? ।।१।। तीर्थकर भगवान लिंग से साधर्मिक नहीं हैं इससे उनके लिये किया हुआ साधु ले सकते हैं तो पीछे अजीव प्रतिमा के लिए जो किया गया है वह लेने में क्या हरज है? इससे जिनेश्वर का बली पका हुआ ही समझना।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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