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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 113 श्रीपादलिप्तसूरि ने प्रतिष्ठाप्राभृत में से उद्धृत प्रतिष्ठा पद्धति में कहा है कि'आगम में कहा है कि, आरती उतार, मंगलदीपकर, पश्चात् चार स्त्रियों ने मिलकर गीतगान आदि विधि के अनुसार करना। महानिशीथ में तीसरे अध्ययन में कहा है कि-अरिहंत भगवंत की गंध, माल्य, दीप, संमार्जन (पुंजना), विलेपन, विविध प्रकार का बलि, वस्त्र, धूप आदि उपचार से आदर पूर्वक प्रतिदिन पूजा करते हुए तीर्थ की उन्नति करनी चाहिए।' इति अग्रपूजा। भावपूजा : जिसके अंदर जिनेश्वर भगवान की पूजा सम्बन्धी व्यापार का निषेध आता है ऐसी तीसरी निसीहि कहकर पुरुष को भगवान की दाहिनी ओर और स्त्री को बायीं ओर, आशातना टालने के हेतु व्यवस्था हो तो जघन्य से भी नव हाथ, घर देरासर हो तो एक हाथ अथवा आधा हाथ और उत्कृष्ट से तो साठ हाथ अवग्रह से बाहर रहकर चैत्यवन्दन, श्रेष्ठस्तुतियां इत्यादि बोलने से भावपूजा होती है। कहा है कि चैत्यवंदन करने के उचित स्थान पर बैठ अपनी शक्ति के अनुसार विविध आश्चर्यकारी गुणवर्णनरूप स्तुति स्तोत्र आदि कहकर देववन्दन करे वह तीसरी भावपूजा कहलाती है। निशीथ चूर्णि में भी कहा है कि वह गंधारश्रावक स्तवन स्तुति से भगवान् की स्तवना करता हुआ वैतादयगिरि की गुफा में रात्रि में रहा। वैसे ही वसुदेवहिँडि में भी कहा है किवसुदेव राजा ने प्रभात में सम्यक्त्वपूर्वक श्रावकके सामायिक प्रमुख व्रतको अंगीकारकर पच्चक्खाण लेकर के कायोत्सर्ग स्तुति तथा वंदना की। इस प्रकार बहुत से स्थानों में 'श्रावक आदि मनुष्यों ने कायोत्सर्ग, स्तुति आदि करके चैत्यवंदन किया' ऐसा कहा है, चैत्यवंदन जघन्यादि भेद से तीन प्रकार का है। भाष्य में कहा है कि नमुकारेण जहन्ना, चिइवंदण मज्झ दंडथुइजुअला। पणदंडथुइचउक्कग-थयपणिहाणेहिं उक्कोसा ॥१॥ अर्थः नमस्कार अर्थात् हाथ जोड़कर सिर नमाना इत्यादि लक्षणवाला प्रणाममात्र करने से अथवा 'नमो अरिहंताणं' ऐसा कह नमस्कार करने से, किंवा श्लोकादिरूप एक अथवा बहुत से नमस्कार से, किंवा प्रणिपातदंडकनामक शक्रस्तव (नमुत्थुणं) एकबार कहने से जघन्य चैत्यवन्दन होता है। चैत्यस्तवदंडक अर्थात् 'अरिहंतचेइयाणं' कहकर अंत में प्रथम एक ही स्तुति (थुइ) (वही स्तुति युगल है) बोले तो मध्यम चैत्यवंदन होता है। पांच दंडक अर्थात् १ शक्रस्तव, २ चैत्यस्तव (अरिहंत चेइयाणं), ३ नामस्तव (लोगस्स), ४ श्रुतस्तव (पुक्खरवरदी), ५ सिद्धस्तव (सिद्धाणं बुद्धाणं) ये पांच दंडक कहकर अंत में प्रणिधान अर्थात् जयवीयराय
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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