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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 111 प्रतिमाओं के संज्ञावाचक नाम : उनमें कितनी ही प्रतिमाएं एक ही भगवान की होने से व्यक्ता नामकी हैं, कितनी ही चौबीसी होने से क्षेत्रानाम की हैं तथा कितनी ही १७० भगवान की होने से महानाम की हैं। और दूसरी भी ग्रंथोक्त प्रतिमाएं हैं। अरिहंत की एक ही पाट पर एक ही प्रतिमा हो तो उसे व्यक्ता कहते हैं, एक ही पाट आदि पर चौबीस प्रतिमाएं हो तो उन्हें क्षेत्रा कहते हैं और एक ही पाट आदि पर एकसो सत्तर प्रतिमाएं हो तो उनको महा कहते हैं। फूल की वृष्टि करते हुए मालाधर देवताओं की जो प्रतिमाएं जिनबिम्ब के सिर पर होती हैं उनका स्पर्श किया हुआ जल भी जिनबिम्ब को स्पर्श करता है, तथा जिनबिम्ब के चित्रवाली पुस्तकें भी एक दूसरे के ऊपर रहती हैं तथा एक दूसरी को स्पर्श करती हैं। इसलिए चौबीसपट्ट आदि प्रतिमाओं के स्नान का जल परस्पर स्पर्श करे उसमें कुछ भी दोष ज्ञात नहीं होता। कारण कि, ग्रंथों में उस विषय का पाठ है और आचरणा की युक्तियां भी हैं। प्रतिमा की संख्या : बृहद्भाष्य में भी कहा है कि कोई भक्तिमान् श्रावक जिनेश्वर भगवान् की ऋद्धि दिखाने के हेतु देवताओं का आगमन तथा अष्ट प्रातिहार्य सहित एक ही प्रतिमा कराता है, कोई दर्शन, ज्ञान व चारित्र इन तीनों की आराधना के हेतु तीन प्रतिमाएं कराता है, कोई पंचपरमेष्ठि नमस्कार के उजमणे में पंचतीर्थी (पांच प्रतिमा) कराता है। कोई भरतक्षेत्र में चौबीस तीर्थकर होते हैं अतः बहुमान से कल्याणक तप के उजमणे में चौबीस प्रतिमाएं कराता है, कोई धनाढ्य श्रावक मनुष्य क्षेत्र में उत्कृष्ट एक सो सत्तर तीर्थकर विचरते हैं, इसलिए भक्ति से एक सो सत्तर प्रतिमाएं कराता है, अतएव त्रितीर्थी (तीन प्रतिमाएं), पंचतीर्थी (पांच प्रतिमाएं), चतुर्विंशतिपट्ट (चौबीस प्रतिमाएं) आदि करना न्याययुक्त है। इति अंगपूजा। अग्रपूजा : विविध प्रकार का ओदन (भात) आदि अशन, मिश्री, गुड़ आदि का पान, पक्वान्न मिठाई तथा फल आदि खाद्य और ताम्बूल आदि स्वाद्य, ऐसा चार प्रकार का नैवेद्य भगवान के संमुख रखना। जैसे श्रेणिक राजा प्रतिदिन सोने के एकसौ आठजव (अक्षत्) से अष्टमांगलिक(स्वस्तिक) आलिखता था, वैसे ही सोने अथवा चांदी के चांवल, सफेद सरशव, चांवल इत्यादिक वस्तु से अष्टमंगलिक आलिखना, अथवा ज्ञान, दर्शन,चारित्रकी आराधना के हेतु पाटले आदि वस्तु में श्रेष्ठ अखंड चांवल के क्रमशः तीन पुंज (दगलियां) करके डालना। गोशीर्षचन्दन के रस से पांचों अंगुलियों सहित हथेली से मंडल रचना आदि, तथा पुष्पांजलि आरती आदि सर्व अग्रपूजा में आते हैं। भाष्य में कहा है कि गायन, नृत्य, वाजिंत्र, नमक उतारना, जल तथा आरती दीप आदि जो कुछ किया जाता है, उस सबका अग्रपूजा में समावेश होता है। नैवेद्यपूजा तो नित्य सुखपूर्वक की जा सके ऐसी है, तथा उसका फल भी बहुत ही बड़ा
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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