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________________ 110 श्राद्धविधि प्रकरणम् जीव जिनेश्वर महाराज के दर्शन हेतु आये हुए मुनि महाराज के उपदेश से प्रतिबोध को प्राप्त होते हैं। जिनमंदिर की मनोहरता : __ अतः बडे मंदिर व घर देरासर तथा उनमें रही हुई सर्व प्रतिमाएं तथा विशेषकर मूलनायकजी की प्रतिमा ये सब अपने सामर्थ्य, देश तथा काल इनके अनुसार सर्वोत्कृष्ट बनवाना। घर देरासर तो पीतल, तांबा आदि धातु का अभी भी बनाना योग्य है। धातु का कराने की शक्ति न हो तो हस्तिदन्त आदि वस्तु का करवाना, अथवा हस्तिदन्त की भमरी आदि की रचना से शोभित पीतल की पट्टी से व हिंगूलक.रंग से सुन्दर देखाव वाला तथा श्रेष्ठ चित्रकारी से रमणीय ऐसा काष्ठादिक का घर देरासर करवाना। बड़े जिनमंदिर में तथा घर देरासर में भी प्रतिदिन चारों तरफ से पूंजना, वैसे ही बांधकाम में आयी हुई लकड़ियां उज्ज्वल करने के हेतु उन पर तैल लगाना, दीवारों पर रंग लगाना, जिनेश्वर भगवान् के जीवन चरित्र दीवारों पर बनवाना, पूजा की समस्त सामग्री बराबर संचित कर रखना, पड़दे तथा चन्दरवे बांधना आदि मंदिर के काम इस प्रकार करना कि जिससे मंदिर तथा प्रतिमा की विशेष शोभा बढ़े। आशातना से बचना : __ घर देरासर के ऊपर धोतियां, पछेड़ी आदि वस्तुएं भी न डालना,कारण कि, बड़े चैत्य की तरह उसकी (घर देरासर की) भी चौरासी आशातना टालना आवश्यक है। प्रतिमा की स्वच्छता : पीतल, पाषाण आदि की प्रतिमा हो तो उसको नहला लेने के अनन्तर नित्य एक अंगलूछणे से सर्व अवयव जल रहित करना और उसके बाद दूसरे कोमल और उज्ज्वल अंगलूछणे से बार-बार प्रतिमा के सर्वाङ्ग को स्पर्श करना। ऐसा करने से प्रतिमाएं उज्ज्वल रहती हैं। जहां जल की जरा भी आर्द्रता रहती है वहीं डाघ पड़ जाता है इसलिए जल की आर्द्रता सर्वथा दूर करना। विशेष केशर युक्त चन्दन का लेप करने से भी प्रतिमाएं अधिकाधिक उज्ज्वल होती हैं। पंचतीर्थी, चतुर्विंशति पट्ट इत्यादि स्थल में स्नात्रजल का परस्पर स्पर्श होता है, इससे कोई आशातना की भी शंका मन में न लाना। ___ श्री रायपसेणी सूत्र में सौधर्मदेवलोक में सूर्याभदेवता के अधिकार में तथा जीवाभिगम में भी विजयापुरी राजधानी में विजय देवता के अधिकार में श्रृंगार (नालवाला कलश) मोरपंख, अंगलूछणा, धूपदान आदि जिनप्रतिमा के तथा जिनेश्वर भगवान् की दाद की पूजा का उपकरण एक ही होता है। निर्वाण पाये हुए जिनेश्वर भगवान् की दाढ़े देवलोक की डिबिया में तथा तीनों लोक में हैं, वे परस्पर एक दूसरी से लगी हुई हैं, इसीसे उनके स्नान का जल भी परस्पर स्पर्श करता है। पूर्वधर आचार्यों के समय में बनवायी हुई प्रतिमाएं आदि किसी नगर में अभी हैं।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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