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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 109 करने से पूर्व मात्र प्रणाम करना योग्य है। संघाचार में तीसरे उपांग में कही हुइ विजयदेवता की वक्तव्यता में भी द्वार और समवसरण के जिनबिम्ब की पूजा मूलनायकजी की पूजा कर लेने के अनंतर कही है। यथा पश्चात् सुधर्मसभा में जाकर जिनेश्वर भगवान् की दाढ़ देखते ही वंदना करे खोलकर मोरपंख की पूंजणी से प्रमार्जना करे, सुगंधित जल से इक्कीस बार प्रक्षालनकर गोशीर्षचंदन का लेप करे और पश्चात् सुगंधित पुष्पआदि द्रव्य से पूजा करे। तदुपरान्त पांचों सभाओं में पूर्वानुसार द्वार प्रतिमा की पूजा करे, द्वार की पूजा आदि का वर्णन तीसरे उपांग में से समझ लेना। इसलिए मूलनायकजी की पूजा अन्य सर्व प्रतिमाओं से प्रथम और विशेष शोभा से करना। कहा है कि उचिअत्तं पूआए, विसेसकरणं तु मूलबिंबस्स। जं पडइ तत्थ पढम,जणस्स दिट्ठी सहमणेणं ॥१॥ मूलनायकजीकी पूजा में विशेष शोभाकरना उचित है; कारण कि,मूलनायकजी में ही भव्य जीवों की दृष्टि और मन प्रथम आकर पड़ता है। शिष्य पूछता है कि, 'पूजा, वन्दन आदि क्रिया एक की करके पश्चात् बाकी के अन्य सबको करने में आयें, तो उससे तीर्थंकरों में स्वामी सेवक भाव किया हुआ प्रकट दृष्टि में आता है। एक प्रतिमा की अत्यादर से विशिष्ट पूजा करना और दूसरी प्रतिमाओं की सामग्री के अनुसार थोड़ी करना, यह भी भारी अवज्ञा होती है, यह बात निपुणबुद्धि पुरुषों के ध्यान में आयेगी।' आचार्य समाधान करते हैं कि-'सर्व जिन-प्रतिमाओं का प्रातिहार्य आदि परिवार समान ही है, उसे प्रत्यक्ष देखनेवाले ज्ञानी पुरुषों के मन में तीर्थंकरों में परस्पर स्वामी सेवकभाव है ऐसी बुद्धि उत्पन्न नहीं होती। मूलनायकजी की प्रतिष्ठा प्रथम हुई इसलिए उनकी पूजा प्रथम करना यह व्यवहार है, इससे बाकी रही तीर्थंकर की प्रतिमाओं का नायकपन नहीं जाता। उचित प्रवृत्ति करनेवाला पुरुष एक प्रतिमा को वंदना पूजा तथा बलि अर्पण करे तो, उससे दूसरी प्रतिमाओं की आशातना देखने में आती नहीं। जैसे मिट्टी की प्रतिमा की पूजा, अक्षत आदि वस्तु से ही करना उचित है और सुवर्ण आदि धातु की प्रतिमा को तो स्नान, विलेपन इत्यादिक उपचार भी करना उचित है। कल्याणक इत्यादिक का महोत्सव हो तो एक ही प्रतिमा की विशेष पूजा करे तो जैसे धर्मज्ञानी पुरुषों के मन में शेष प्रतिमाओं में अवज्ञा परिणाम नहीं आते, इस प्रकार उचित प्रवृत्ति करनेवाले पुरुष को मूलनायकजी की प्रथम और विस्तार से पूजा करने में भी शेष प्रतिमाओं की अवज्ञा और आशातना नहीं होती। जिनमंदिर में जिनप्रतिमा की पूजा की जाती है, वह जिनेश्वर भगवान के हेतु नहीं परन्तु बोध पाये हुए पुरुषों को शुभ भावना उत्पन्न करने तथा बोध न पाये हुए पुरुषों को बोध प्राप्त करने हेतु की जाती है। कोई-कोई भव्य जीव चैत्य के दर्शन से,कोई-कोई प्रशान्त जिनबिम्ब देखने से, कोई-कोई पूजा का अतिशय देखने से और कोई-कोई
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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