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________________ 108 श्राद्धविधि प्रकरणम् शत्रुओं के शल्यरूप ऐसे हे सेनानि रणभूमि में शूरवीर पुरुषों को प्रसव करनेवाली तो कोई-कोई ही माता होती है। ___अश्व, शस्त्र, शास्त्र, वीणा, वाणी, नर और स्त्री इतनी वस्तुएं योग्य पुरुष के हाथ में जायँ तो श्रेष्ठ योग्यता पाती हैं, और अयोग्य पुरुषों के हाथ में जाये तो योग्यता नहीं पाती। जिणहा के ऐसे वचन से भीमदेव राजा ने हर्षित हो उसे कोतवाल का अधिकार दिया। इसके बाद जिणहा ने गुजरात देश में चोर का नाममात्र भी रहने न दिया। ___ एक दिन सोरठ देश के किसी चारण ने जिणहा की परीक्षा करने हेतु ऊंट की चोरी की। जिणहा के सिपाही उसे पकड़कर देवपूजा के समय प्रातःकाल में उसके संमुख लाये। उसने (जिणहा ने) फूल का बीट तोड़कर सूचना दी कि 'इसे मार डालो' तब चारण ने कहा जिणहाओ नइ जिणवरह, न मिले तारो तार। जिण कर जिणवर पूजिए, ते किम मारणहार? ।।१।। चारण का यह वचन सुन शर्मिंदा होकर जिणहा ने 'फिर से चोरी न करना' यह कह उसे छोड़ दिया। चारण बोला इक्का चोरी सा किया, जा खोलडे न माय। बीजी चोरी किम करे? चारण चोर न थाय ॥४॥ चारण की इस प्रकार चतुरतापूर्ण उक्ति सुनकर जिणहा ने उसे इनाम दिया। पश्चात् जिणहा ने तीर्थयात्राएं की, जिनमंदिर बंधाये, पुस्तकें लिखवायीं, तथा अन्य भी बहुत सा पुण्य किया। जिणहा ने पोटली ऊपर का दाण (कर, महसूल) छुड़ाया आदि बातें अभी तक लोक में प्रचलित हैं। यह जिणहा का प्रबंध हुआ। प्रथम मूलनायक की पूजा : ___ मूलनायकजी की सविस्तार पूजाकर लेने के बाद क्रमशः सामग्री के अनुसार सब जिनबिम्ब की पूजा करना। द्वार पर के समवसरण के जिनबिम्ब की पूजा भी गभारे में से बाहिर निकलते समय करना उचित है, परंतु प्रथम नहीं. कारण कि, मूलनायकजी की ही प्रथम पूजा करना उचित है। द्वारपर का बिम्ब द्वार में प्रवेश करते समय प्रथम पास आता है, इससे उसकी प्रथम पूजा करना, ऐसा जो कदापि कहे तो बड़े जिनमंदिर में प्रवेश करते तो बहुत से जिनबिम्ब प्रथम आते हैं, जिससे उनकी भी प्रथम पूजा करने का प्रसंग आयेगा, और वैसा किया जाय तो पूष्पादिक सामग्री थोड़ी हो तो मूलनायकजी तक पहुंचते सामग्री पूरी हो जाने से मूलनायकजी की पूजा भी न हो सके। वैसे ही श्री सिद्धाचलजी, गिरनार आदि तीर्थों में प्रवेश करते मार्ग में समीप बहुत से चैत्य आते हैं, उनके अंदर रही हुई प्रतिमाओं का प्रथम पूजन करे तो अंतिम किनारे मूलनायकजी के मंदिर में जाना हो सके, यह बात योग्य नहीं। अगर यह योग्य भी माने तो उपाश्रय में प्रवेश करते गुरु को वंदन करने के पूर्व समीपस्थ साधुओं को प्रथम वंदना करने का प्रसंग आता है। समीपस्थ प्रतमाओं को मूलनायकजी की पूजा
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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