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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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के) आदि रखना, धूप उखेवना, सुगन्धित वासक्षेप करना इत्यादि सर्व उपचार अंगपूजा में होते हैं। बृहद्भाष्य में कहा है कि—
ण्हवणविलेवणआहरणवत्थफलगंधधूवपुप्फेहिं । कीरइ जिणंगपूआ, तत्थ विही एस नायव्वो ॥१॥ वत्थेण बंधिऊणं, नासं अहवा जहासमाहीए । वज्जे अव्वं तु तया देहंमिवि कंडुअणमाई ||२|
स्नात्र, विलेपन, आभरण, वस्त्र, फल, सुगंधित चूर्ण (वासक्षेप ) धूप तथा पुष्प इतने उपचारों से, जिनेश्वर भगवान की अंगपूजा की जाती है। उसकी विधि इस प्रकार है
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वस्त्र से नासिका बांधकर अथवा जिस प्रकार चित्त की समाधि रहे वैसा करके पूजा करना। उस समय शरीर में खुजली आदि क्रिया का अवश्य त्याग करना चाहिए। अन्य स्थान पर भी कहा है कि – जगबंधु श्री जिनेश्वर भगवान् की पूजा करते समय शरीर में खुजाना, खंखार डालना और स्तुति स्तोत्र बोलना ये तीन बातें वर्जित हैं। देवपूजा के समय मौन रहना ही श्रेष्ठ मार्ग है, कदाचित् वैसा न किया जा सके तो सावद्यवचन तो सर्वथा छोड़ना । कारण कि निसीहि करने में गृहव्यापार का निषेध किया है। उसके लिए हस्त, मुख, नेत्र प्रमुख अवयव से पापहेतु संज्ञा भी न करना, करने से अनुचितपने का प्रसंग आता है। यहां जिणहा श्रेष्ठि का दृष्टान्त कहते हैंजिणहा की कथा :
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धोलका नगर में जिणहा नामक अतिदरिद्री श्रेष्ठी रहता था। वह घी के मटके, कपास की गांठे आदि बोझ उठाकर अपना निर्वाह करता था । भक्तामर प्रमुखस्तोत्र के स्मरण से प्रसन्न हुई चक्रेश्वरी देवी ने उसको एक वशीकरण रत्न दिया। उस रत्न के प्रभाव से जिणहा ने मार्ग में रहनेवाले तीन प्रसिद्ध दुष्ट चोरों को मार डाला। वह आश्चर्यकारी वृत्तान्त सुन पाटण के भीमदेव राजा ने आदर सहित उसे बुलाकर देश की रक्षा के लिए एक खड्ग दिया, तब शत्रुतुल्य नामक सेनापति ने डाहवश कहा किखांडउ तासु समप्पिइ, जसु खंडइ अब्भास ।
जिहा इक्कु समप्पिइ, तुल चेलउ कप्पास ॥१॥
खड्ग उसीको देना चाहिए कि, जिसे उसका अभ्यास हो जिणहा को तो घी तेल के मटके, वस्त्र और कपास ये ही देना चाहिए।
यह सुन जिणहा ने उत्तर दिया कि
असिधर [धणुधर] कुंतधर, सत्तिधरा य बहूआ । सत्तुसल रणि जे सूरनर, जणणिति विरलपसू अ ॥२॥
अश्वः शस्त्रं शास्त्रं वाणी वीणा नरश्च नारी च ।
पुरुषविशेषं प्राप्ता भवन्त्ययोग्याश्च योग्याश्च ॥२॥
तलवार, धनुष्य और भाले को पकड़नेवाली तो संसार में बहुत व्यक्ति हैं, परंतु