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________________ 106 श्राद्धविधि प्रकरणम् वचन में प्रतिमा के सन्मुख धरे हुए अक्षतआदि द्रव्य को भी निर्माल्य कहा है, परन्तु अन्य स्थान में, आगम में, प्रकरण में अथवा चरित्रादिक में कहीं भी यह बात दृष्टि में नहीं आती। स्थविर के संप्रदायादिक से भी कोई गच्छ में यह रीति नहीं पायी जाती। साथ ही जो देहातादिक में द्रव्यप्राप्ति का उपाय नहीं होता, वहां प्रतिमा के सन्मुख धरे हुए अक्षतआदि वस्तु के द्रव्य से ही प्रतिमा पूजी जाती है। जो अक्षतादि निर्माल्य होते तो उससे प्रतिमा की पूजा भी कैसे होती? अतः उपभोग करने से निरुपयोगी हुई वस्तु को ही निर्माल्य कहना वही युक्ति संगत है। और "भोगविणटुं दव्वं, निम्मल्लं बिति गीअत्था" यह आगमवचन भी इस बात का आधारभूत है। तत्त्व तो केवली जाने। चंदन-फूल आदि वस्तु से पूजा इस प्रकार करना कि, जिससे प्रतिमा के नेत्र तथा मुख सुखपूर्वक देखे जा सके और पूर्व की अपेक्षा विशेष शोभा हो, कारण कि, वैसा करने से ही दर्शक को हर्ष, पुण्य की वृद्धि इत्यादि होना संभव है। . अंगपूजा, अग्रपूजा और भावपूजा ऐसे पूजा के तीन प्रकार हैं। जिसमें प्रथम अंगपूजा में कौन-कौन सी वस्तु आती है उसका वर्णन करते हैं। निर्माल्य उतारना, पूंजनी से पूंजना, अंग प्रक्षालन करना, वालाकूची से केशर आदि द्रव्य उतारना, केशरादिक द्रव्य से पूजा करना, पुष्प चढ़ाना, पंचामृत स्नात्र करना, शद्धजल से अभिषेक करना, धूप दिये हुए निर्मल तथा कोमल ऐसे गंधकाषायिकादि वस्त्र से अंग लूंछना (पोंछना), कपूर, कुंकुंम प्रमुख वस्तु से मिश्र किये हुए गोशीर्षचन्दन से विलेपन करना, आंगीआदि की रचना करना, गोरोचन कस्तूरी आदि द्रव्य से तिलक तथा पत्रवल्ली (पील) आदि की रचना करना, सर्वोत्कृष्ट रत्नजडित स्वर्ण तथा मोती के आभूषण और सोने चांदी के फूल आदि चढ़ाना। जैसे कि श्रीवस्तुपाल मंत्री ने अपने बनवाये हुए सवा लाख जिनबिम्ब पर तथा श्रीसिद्धाचलजी ऊपर आयी हई सर्व प्रतिमाओं पर रत्नजड़ित सुवर्ण के आभरण चढ़ाये, तथा जैसे दमयंती ने पूर्वभव में अष्टापद तीर्थ पर आयी हुई चौबीस प्रतिमाओं पर रत्न के तिलक चढ़ाये, वैसे ही सुश्रावक ने जिस प्रकार से अन्य भव्य प्राणी भाव वृद्धि को प्राप्त हों उस प्रकार से आभरण चढ़ाना। कहा है कि पवरेहिं साहणेहिं, पायं भावोवि जायए पवरो। नय अन्नो उवओगो, एएसिं सयाण लट्ठयरो ।।१।। प्रशंसनीय साधनों से प्रायः प्रशंसनीय भाव उत्पन्न होते हैं। प्रशंसनीय साधनों का इसके अतिरिक्त अन्य उत्तम उपयोग नहीं। तथा पहेरावणी, चन्द्रोदय आदि अनेक प्रकार के दुकूलादि वस्त्र चढ़ाना, श्रेष्ठ, ताजा और शास्त्रोक्त विधि के अनुसार लाये हुए शतपत्र (कमल की जाति), सहस्रपत्र (कमल विशेष), जाइ, केतकी, चंपा आदि फूलों की गुंथी हुई, धिरी हुई, पूरी हुई तथा एकत्रित की हुई ऐसी चार प्रकार की माला, मुकुट शिखर, फूलघर आदि की रचना करना, जिनेश्वर भगवान के हाथ में सोने के बिजोरे, नारियल, सुपारी, नागरवेल के पान, सुवर्णमुद्रा, अंगूठियां, मोदक (स्वर्णादि
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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