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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 105 'बालत्तणम्मि सामि! सुमेरुसिहरम्मि कणयकलसेहिं। तिअसासुरेहिं ण्हविओ, ते धन्ना जेहिं दिट्ठोसि ॥१॥ इत्यादि बातों का मन में चिन्तन करना। पश्चात् यतना पूर्वक जिनबिम्ब ऊपर के चन्दनादिक उतारकर पुनः प्रक्षाल करके दो तीन] अंगलूछणा से (अंगपूंछने का वस्त्र) जिनबिम्ब ऊपर का सर्व पानी पोंछ लेना पश्चात् पांव के दो अंगूठे, दो घुटने, हाथ की दो कलाई, दो कंधे और मस्तक इतने स्थान की अनुक्रम से पूजा करना, ऐसा कहा है अतः आगे वर्णन किया जायगा उसके अनुसार सीधे क्रम से नवों अंगों में चंदन, केशर, आदि वस्तुओं से पूजा करे। कोई कोई आचार्य कहते हैं कि प्रथम ललाट पर तिलककर पश्चात् नवाग की पूजा करना। श्रीजिनप्रभसूरि ने लिखी हुई पूजा की विधि में तो सरस और सुगन्धित चंदन से भगवान् का दाहिना घुटना, दाहिना कंधा, कपाल बांया कन्धा और बांया घुटना इन पांच अथवा हृदय सहित 'छः अंग में पूजाकर ताजा फल और वासक्षेप इन दो द्रव्यों से पूजा करे, ऐसा कहा है। जो पूर्व में किसीने पूजा की हो, और अपने पास पूर्व पूजा से श्रेष्ठ पूजा करने की सामग्री न हो तो वह पूजा दूर नहीं करनी,कारण कि, उस (सुंदर) पूजाके दर्शन से भव्यजीवोंको होनेवाले पुण्यानुबंधिपुण्य के अनुबंध को अन्तराय करने का प्रसंग आता है। अतएव प्रथम की पूजा न उतारकर अपने पास की सामग्री से उसे बढ़ाना। बृहदभाष्य में कहा है कि-जो प्रथम किसीने बहुत सा द्रव्य व्यय करके पूजा की हो, तो वही पूजा जिस तरह विशेष शोभायमान हो उसी प्रकार अपनी पूजा सामग्री का उपयोगकर पूजा करना। ऐसा करने से प्रथम पूजा निर्माल्य भी नहीं मानी जाती, कारण कि, उसमें निर्माल्य का लक्षण नहीं आता। गीतार्थ आचार्य उपभोग लेने से निरुपयोगी हुई वस्तु को निर्माल्य कहते हैं। इसीलिए वस्त्र, आभूषण, दोनों कुंडल इत्यादि बहुत सी वस्तुएं एक बार उतारी हुई पुनः जिनबिम्ब पर चढ़ाते हैं। ऐसा न हो तो एक गंधकाषायिकावस्त्र से एक सो आठ जिनप्रतिमा की अंगलूछणा करनेवाले विजयादिक देवता का जो वर्णन सिद्धान्त में किया है, वह कैसे घटित हो? जिनबिम्ब पर चढ़ायी हुई जो वस्तु फीकी, दुर्गन्धित, देखनेवाले को भली न लगे तथा भव्यजीव के मन को हर्षित न करे ऐसी हो गयी हो, उसीको श्रुतज्ञानी पुरुष निर्माल्य कहते हैं ऐसा संघाचारवृत्ति में कहा है। प्रद्युम्नसरि रचित विचारसार प्रकरण में तो इस प्रकार कहा है कि चैत्यद्रव्य (देवद्रव्य) दो प्रकार के हैं एक पूजाद्रव्य और दूसरा निर्माल्यद्रव्य। पूजा के निमित्त लाकर जो द्रव्य एकत्रित किया हो वह पूजा द्रव्य है, और अक्षत, फल, बलि (मिठाई आदि), वस्त्र आदि संबंधी जो द्रव्य, वह निर्माल्यद्रव्य कहलाता है। उसका जिनमंदिर में उपयोग जानना। इस १. हे स्वामिन्! चौसठ इन्द्रोंने बाल्यावस्था में मेरु पर्वत पर सुवर्णकलश से आपको स्नान कराया, उस समय जिन्होंने आपको देखा, वे जीव धन्य हैं। २. इस सूत्र के रचना काल में छ अंग एवं नवांगी पूजा दोनों प्रकार प्रचलित थे। नौ अंग भी मस्तक. तक पूर्ण हो जाते थे।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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