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________________ 104 श्राद्धविधि प्रकरणम् को अपनी दाहिनी ओर कर ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनों की आराधना करने हेतु तीन प्रदक्षिणा दे। उसके अनन्तर भक्ति से परिपूर्ण मन से 'नमो जिणाणं' ऐसा प्रकट कहे और अर्धावनत (जिसमें आधा शरीर नमता है ऐसा) अथवा पंचांग प्रणाम करे, पश्चात् पूजा के उपकरण हाथ में ले भगवान् के गुणगण से रचे हुए स्तवनों को अपने परिवार के साथ मधुर व गंभीर-स्वर से गाता हुआ, हाथ में योगमुद्रा धारण किये हुए, कदम-कदम पर जीव रक्षा का उपयोग रखते हुए और एकाग्र मन से भगवान् के गुणगण का चिन्तन करता हुआ तीन प्रदक्षिणा दे। घर देरासर में इस प्रकार प्रदक्षिणा आदि क्रिया करना नहीं बनता। दूसरे बड़े मंदिर में भी कारणवश ये किये न जावे, तो भी बुद्धिशाली मनुष्य ने ये सर्व क्रियाएं निरन्तर करने का परिणाम रखना चाहिए, भाव छोड़ना नहीं। सुश्रावक प्रदक्षिणा देने के अवसर पर समवसरण में बैठे हुए चतुर्मुख भगवान् का ध्यान करता हुआ मूलगभारे में और भगवान् की पीठ तथा बायी ओर दाहिना भाग इन तीनों दिशाओं में स्थित जिनबिम्ब को वन्दन करे। इस हेतु से सब जिनमंदिर समवसरण के स्थान पर होने से मूलगभारे के बाहर के भाग में तीनों दिशाओं में मूलनायकजी के नाम से जिनबिम्ब कराये जाते हैं, 'अरिहंत की पीठ छोड़ना' ऐसा कहा है, जिससे चारों दिशाओं को अरिहंत की पीठ रहने से पीठ की ओर रहने का दोष टलता है। प्रभुपूजन : पश्चात् जिनमंदिर का पूंजना, स्वयं सीलक आदि का नामा लिखना इत्यादि आगे कहा जायेगा उसके अनुसार यथायोग्य चैत्य चिन्ता तथा पूजा की संपूर्ण सामग्री प्रथम से ही तैयार करके मुख्यमंडपादिक में चैत्यव्यापारनिषेधरूपी दूसरी निसीहि कहे। और मूलनायकजी को तीन बार वन्दनकर पूजा करे। भाष्य में कहा है कि उसके अनंतर प्रथम निसीहिकर, मुखमंडप में प्रवेशकर, जिनभगवान के संमुख घुटने और हाथ भूमि को लगा यथाविधि तीन बार वन्दन करे। पश्चात् आनन्द से प्रफुल्लित हो सुश्रावक मुखकोश करके जिनेन्द्रप्रतिमा के उपर रात्रि में रहे हुए वासी फूल आदि निर्माल्य मोरपंख से उतारे। तत्पश्चात् स्वयं जिनेश्वर के मंदिर को पूंजे, अथवा दूसरे से पुंजावे। तदुपरान्त सुविधा के अनुसार जिनबिम्ब की पूजा करे। मुखकोश आठ पड़ का मुख तथा नासिका का निश्वास रोकने के निमित्त बांधना। बरसात के समय निर्माल्य में कुंथुआ आदि जीवों की उत्पत्ति भी हो जाती है, इसलिए वैसे समय में निर्माल्य तथा स्नात्र का जल जहां प्रमादी मनुष्य की हलचल न हो ऐसे पवित्रस्थान में पूर्ण रूप से जीवरहित भूमि देखकर परठना। ऐसा करने से जीव रक्षा होती है और आशातना भी टलती है। घर देरासर में तो प्रतिमा को ऊंचे स्थान पर भोजनादि कृत्यों में व्यवहार में न आनेवाले पवित्रपात्र में स्थापनकर दोनों हाथों से पकड़े हुए पवित्र कलशादिक के जल से अभिषेक करना। उस समय
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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