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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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नहीं, जहां बिच्छू, कीड़ी आदि का उपद्रव नहीं, जहां की भूमि अग्नि आदि के ताप से थोड़े समय की अचित्त की हुई है, जिसके नीचे कम से कम चार अंगुल भूमि अचित्त है, जो वाड़ी, बंगला आदि के समीप भाग में नहीं है, कम से कम एक ही हाथ विस्तार वाला, चूहे कीड़ी आदि के बिल, त्रसजीव तथा जहां बीज (सचित्त धान्य के दाने आदि) नहीं ऐसे स्थान में मल-मूत्र का त्याग करना। ऊपर तृण आदि से ढंका हुआ स्थान न हो, ऐसा कहने का कारण यह है कि, ढंका हुआ स्थान हो तो वहां बिच्छू आदि का काटना संभव है, तथा मल आदि से चींटी आदि चली जाती है इसीलिए तृणादिक से ढंका हुआ नहीं चाहिए। वैसे ही जहां की भूमि थोड़े समय की अचित्त की हुई हो, ऐसा कहने का कारण यह है कि, अग्नि का ताप आदि करके अचित्त की हुई भूमि, दो मास तक अचित्त रहती है, पश्चात् मिश्र हो जाती है। जिस भूमि पर चौमासे में गांव बसा हो वह भूमि बारह वर्ष तक शुद्धस्थंडिलरूप होती है। और भी कहा है कि ---दिशा विचारकर बैठना, पवन, ग्राम तथा सूर्य इनकी तरफ पीठ करके नहीं बैठना, छाया में तीन बार पूंजकर, 'अणुजाणह जस्सुग्गहो' कहकर, अपने शरीर की शुद्धि हो वैसे मल मूत्र का त्याग करना । उत्तर व पूर्वदिशा की ओर मुख करना ठीक है। रात्रि में दक्षिण दिशा में पीठ करके करे तो राक्षस, पिशाचादिक आकर पीड़ा करते हैं। पवन के सन्मुख मुख करे तो नाक में अर्शआदि की पीड़ा हो, सूर्य और ग्राम के सन्मुख पीठ करे तो निंदा हो । जो ठल्ले जीव उत्पत्ति वाली हो तो वहां से अलग जाकर किसी वृक्षादि की छाया में त्याग करना, छाया न हो तो धूप में ही अपनी छाया में त्याग करना, त्याग करके एक मुहूर्त (दो घड़ी) तक वहां बैठना ।
अणावायमसंलोए, परस्सऽणुवघाइए ।
समे असिरे वावि, अचिरकालकमि अ ॥१॥ विच्छिन्ने दूरमोगाढे, नासन्ने बिलवज्जिए । तसपाणबीअरहिए, उच्चाराईणि वोसिरे ॥२॥ मुत्तनिरोहे चक्खू, वच्चनिरोहे अ जीवियं चयइ । उनि कुटं गेलन्नं वा भवे तिसु वि ॥ ३ ॥
लघुनीति (मूत्र) रोकने से नेत्र पीड़ा होती है, और बड़ी नीति (मल) रोके तो प्राणहानि है, ऊर्ध्ववायु (डकार) रोके तो कुष्ठरोग होता है, अथवा तीनों के रोकने से उन्माद (पागलपन) होता है। बड़ीनीति, लघुनीति, सलेखम (नाक का मल) आदि का त्याग करने के पूर्व 'अणुजाणह जस्सुग्गहो' ऐसा कहना, तथा त्याग करने के अनन्तर तुरंत 'वोसिरे' ऐसा तीन बार मन में चिन्तन करना । सलेखम इत्यादि को धूल से ढांकने कभी यतना करना, न करने से उसमें असंख्य संमूर्च्छिम मनुष्य की उत्पत्ति होती है तथा उनकी विराधना आदि दोष लगता है। श्री पन्नवणा सूत्र के प्रथम पद में कहा है कि