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________________ 92 श्राद्धविधि प्रकरणम् प्रश्न हे भगवंत! संमूर्छिम मनुष्य किस प्रकार उत्पन्न होते हैं? उत्तर–हे गौतम! पिसतालीश लाख योजन वाले मनुष्य क्षेत्र में ढाई द्वीप समुद्र के अंदर पंद्रह कर्मभूमि में तथा छप्पन अंतर्वीप में, गर्भज मनुष्य की विष्ठा, मूत्र, बलखा, नासिका का मल, वमन, पित्त, वीर्य, पुरुषवीर्य में मिश्रित स्त्रीवीर्य (रक्त), बाहर निकाले हुए पुरुष वीर्य के पुद्गल, जीव रहित कलेवर, स्त्री पुरुष का संयोग, नगर की खाल तथा सब अशुचि स्थान इनमें संमूर्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। अंगुल के असंख्यातवें भाग समान अवगाहना वाले, असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, सर्व पर्याप्ति से अपर्याप्त और अंतर्मुहूर्त आयुष्य वाले ऐसे वे संमूर्छिम मनुष्य (अंतर्मुहूर्त में) काल करते हैं। ऊपर 'सर्व अशुचि स्थान' कहा है यानि जो कोई स्थान मनुष्य के संसर्ग से अशुचि होते हैं वे सर्व स्थान लेना, ऐसा पन्नवणा की वृत्ति में कहा है। दांतन की विधि : - दांतन आदि करना हो तो दोष रहित (अचित्त) स्थान में ज्ञातवृक्ष के अचित्त और कोमल दंतकाष्ठ से अथवा दांत की दृढ़ता करनेवाली अंगूठे की पास की तर्जनी अंगुली से घिस कर करना। दांत तथा नाक का मल डाला हो, उसपर धूल ढांकना आदि यतना अवश्य रखना। व्यवहार शास्त्र में तो इस प्रकार कहा है कि दांत की दृढ़ता के निमित्त प्रथम तर्जनी अंगुली से दांत की दाढ़ें घिसना पश्चात् यत्नपूर्वक दातन करना। जो पानी के प्रथम कुल्ले में से एक बिन्दु कंठ में चला जावे तों समझना कि, आज भोजन अच्छा मिलेगा। सरल, गांठ बिना, अच्छी कूची बनजावे ऐसा पतली नोकवाला, दश अंगुल लम्बा, टचली कनिष्ठा अंगुली की नोक के बराबर जाड़ा, ऐसा ज्ञातवृक्ष के दांतन को कनिष्ठिका और उसकी पास की अनामिका अंगुली के बीच में लेकर दांतन करना। उस समय दाहिनी अथवा बायी दाढ़ के नीचे घिसना, दांत के मसूडों को कष्ट न देना। स्वस्थ होकर घिसने में ही मन रखना। उत्तर अथवा पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना, बैठने का आसन स्थिर रखना, और घिसते समय मौन रहना। दुर्गंध युक्त, पोला सूखा मीठा,खट्ठा और खाटा ऐसा दातन त्यागना। व्यतिपात, रविवार, सूर्यसंक्रान्ति, चन्द्र सूर्य का ग्रहण, नवमी, अष्टमी, पड़वा, चौदश, पूर्णिमा और अमावस्या इन छः दिनों में दातन नहीं करना। दातन न मिले तो बारह कुल्ले करके मुख शुद्धि करना और जीभ के ऊपर का मल तो नित्य उतारना। जीभ साफ करने की पट्टी से अथवा दातन की फाड़ से धीरे-धीरे जीभ घिसकर दातन फेंक देना। दातन अपने सन्मुख अथवा शान्त दिशा में पड़े किंवा ऊंचा रहे तो सुख के हेतु जानना, और इससे विपरीत किसी प्रकार पड़े तो दुखदायी समझना। क्षणमात्र ऊंचा रहकर जो पड़ जावे तो उस दिन मिष्ठान्न का लाभ मिलता है, ऐसा शास्त्रज्ञ मनुष्य कहते हैं। खांसी, श्वास, ज्वर, अजीर्ण, शोक, तृषा (प्यास), मुखपाक (मुंह आना), ये जिसको हुए हों अथवा जिसको शिर, नेत्र, हृदय और कान का रोग हुआ हो, उस मनुष्य को दातन नहीं करना।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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