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________________ ___90 श्राद्धविधि प्रकरणम् व्याख्या हुई। अब 'सुई पूइअ' इत्यादि पद की व्याख्या करते हैं। मल-मूत्र का त्याग, दांतन करना, जीभ घिसना, कुल्ला करना, सर्वस्नान अथवा देश स्नान इत्यादिक करके पवित्र हुआ। यहां पवित्र होना यह लोक प्रसिद्ध होने से शास्त्र उसे करने का उपदेश नहीं करता। जो वस्तु लोकसंज्ञा से नहीं प्राप्त होती, उसी वस्तु का उपदेश करना यह अपना कर्तव्य है ऐसा शास्त्र समझता है। मलमलीन शरीर हो तो नहाना, भूख लगे तो खाना, ऐसी बातों में शास्त्रोपदेश की बिलकुल आवश्यकता नहीं। लोकसंज्ञा से अप्राप्त ऐसे इहलोक परलोक हितकारी धर्ममार्ग का उपदेश करने से ही शास्त्र की सफलता होती है। शास्त्रोपदेश करनेवालो को सावध आरंभ की वचन से अनुमोदना करना यह भी अयोग्य है। कहा है कि सावज्जाणवज्जाणं, वयणाणं जो न जाणइ विसेसं। वोत्तुंपि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं काउं? ।।१।। जो सावध और अनवद्य वचन के भेद विशेषतः जानता नहीं, वह मुंह में से एक वचन भी बोलने के योग्य नहीं है, फिर भला उपदेश करने की तो बात ही कौनसी? मलमूत्रादिक त्याग की विधि : मल-मूत्र का त्याग तो मौन रहकर तथा योग्य स्थान देखना आदि की विधि पूर्वक करना ही उचित है। कहा है कि मूत्रोत्सगं मलोत्सर्ग, मैथुनं स्नानभोजने। सन्ध्यादिकर्म पूजां च, कुर्याज्जापं च मौनवान् ।।१।। मल-मूत्र का त्याग, मैथुनसेवन, स्नान, भोजन, संध्यादि कर्म, देवपूजा और जाप इतने कार्य मौन रखकर ही करने चाहिए। विवेकविलास में भी कहा है किप्रातःकाल, सायंकाल तथा दिन में भी उत्तरदिशा में और रात्रि में दक्षिणदिशा में मुखकर मौन रखकर तथा वस्त्र ओढ़कर मल-मूत्र का त्याग करना। संपूर्ण नक्षत्रों के निस्तेज होने पर सूर्यबिम्ब का आधा उदय हो तब तक प्रभातसंध्या का समय कहलाता है। सूर्यबिम्बके आधे अस्त से लेकर दो तीन नक्षत्र आकाश में न दीखें, तब तक सायंसंध्या का समय है। मल-मूत्र का त्याग करना हो तो जहां राख, गोबर, गायों का रहेठाण, राफड़ा,विष्ठा आदि हो, वह स्थान तथा उत्तम वृक्ष, अग्नि, मार्ग, तालाब इत्यादिक, स्मशान, नदी तट तथा स्त्रियों तथा अपने वडीलों की जहां दृष्टि पड़ती हो, ऐसे स्थान को छोड़ना। ये नियम उतावल न हो तो पालना, उतावल होने पर सर्व नियम पालना ही चाहिए ऐसा नहीं। श्री ओधनियुक्ति आदि ग्रंथों में भी साधुओं के उद्देश्य से कहा है कि जहां किसी मनुष्य का आवागमन नहीं, तथा जिस स्थान पर किसी की दृष्टि भी नहीं पड़ती, जहां किसीको अप्रीति उपजने से शासन की हिलना का कारण और ताड़नादिक होने का संभव नहीं, समभूमि होने से गिरने की शंका नहीं, जो तृण आदि से ढका हुआ
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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