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________________ २/१० धातुपाठ के प्रचक्ता और व्याख्याता (२) ७३ ख-पतगतौवापशानुपसर्गात् ।' इन सूत्रों के विच्छेद के विषय में जो मतभेद है, उसका निर्देश हम पूर्व 'अर्थ-निर्देश पाणिनीय है' प्रकरण में पृष्ठ ५८ पर चुके हैं। ख पाठ के विषय में सायण लिखता है'अत्र स्वामी संहितायां धातुपाठाद् वाशब्दमुत्तरधातुशेषं वष्टि ।' ५ धातुवृत्ति पृष्ठ ३६० । अर्थात्-यहाँ क्षीरस्वामी धातुपाठ के संहिता में होने से वा शब्द को उत्तर धातु का शेष मानता हैं। ग-पाणिनीय तथा तत्पूर्ववर्ती धातुपाठों में एक सूत्र है रादाने । क्षीरत० २॥५०॥ यास्क ने अप्सरा पद के निर्वचन में इस सूत्र के रा दाने, रा प्रादाने उभयथा विच्छेद को मानकर दान और आदान अर्थों का निर्देश किया है। यथा 'अप्सरा 'अप्स इति रूपनाम ......"तदनयाऽऽत्तमिति वा, तदस्य दत्तमिति वा । निरुक्त ५।१३।। अर्थात्-अप्सरा अप्स नाम रूप का है...."उस रूप को इसने आत्त (=ग्रहण) किया है, अथवा उसे इसके लिए दिया है । यहां स्पष्ट ही यास्क ने संहिता पाठ को प्रामाणिक मानकर रा दाने, रा प्रादाने उभयथा विच्छेद स्वीकार किया है। उभयथा सूत्र-विच्छेद पाणिनीय है धातुपाठ के संहितापाठ को प्रामाणिक मानकर वृत्तिकारों ने जो विविध प्रकार का सूत्र-विच्छेद दर्शाया है वह पाणिनीय है, ऐसा वैयाकरणों का मत है । इसीलिए तपऐश्वर्येवावृतुवरणे सूत्र पर सायण लिखता है प्रस्याकं तूभयमपि प्रमाणम्, प्राचार्येणोभयथा शिष्याणां प्रति- २ पादनात् । धातुवृत्ति पृष्ठ २६३ । १. इसके विषय में क्षीरतरङ्गिणी १० । २४६,२५०; माधवीया धातुवृत्ति (पृष्ठ ३६७ ) द्रष्टव्य हैं।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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