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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
___ भोटलिङ्गीय पाठ-सम्प्रति पाश्चात्य विद्वानों तथा उनके अनुयायियों द्वारा धातपाठ का जो पाठ प्रामाणिक माना जाता है, वह जर्मनदेशीय भोटलिङ्ग द्वारा संगृहीत अथवा परिष्कृत है। उसे भी पाणिनीय कहना अनुचित है। इस पाठ में भोटलिङ्ग ने विना विशेष विचार के तन्त्रान्तरप्रसिद्ध प्रायः सभी धातुओं का संग्रह कर दिया है। अतः भोटलिङ्ग का पाठ तो सायण के पाठ से भी अधिक भ्रष्ट और प्रमाणरहित है ।
संहिता पाठ का प्रामाण्य प्रायः सभी प्राचीन आर्ष ग्रन्थों का मन्त्रसंहिता के समान १० संहितापाठ ही प्रामाणिक माना जाता है। भगवान पतञ्जलि आदि
आचार्यों ने अष्टाध्यायी के संहितापाठ को हो प्रामाणिक माना है। यथा___क-कुतः पुनरियं विचारणा ? उभयथा हि तुल्या संहिता-'स्थाने
न्तरतम उरण रपरः' इति । महा० १॥१॥५०॥ . अर्थात्-- उक्त विचार कैसे उत्पन्न हुआ ? [उत्तर] दोनों प्रकार
से संहिता तुल्य है-स्थानेन्तरतम उरण रपर । अर्थात् इस संहितापाठ का स्थानेन्तरतमः तथा स्थानेन्तरतमे दोनों प्रकार से विच्छेद हो सकता है।
ख-नैवं विज्ञायते-कञ्क्वरपो याश्चेति । कथं तहि? कक्वर२० पोऽयश्चेति । महा ४।१।१।१६।।
अर्थात्-इस प्रकार का सूत्रच्छेद नहीं है - कक्वरपः-यत्रश्च, अपि तु कञ्क्वरपः-अयत्रश्च । क्योंकि संहिता उभयथा तुल्य ही है-- कञ्क्वरपोयत्रश्च ।
इसी प्रकार धातुपाठ में भी धातुसूत्रों का संहितापाठ ही प्रामा२५ णिक माना जाता है । इसीलिए धातसूत्रों के विच्छेद में वृत्तिकारों का बहुत मतभेद उपलब्ध होता है । यथा--
क-तपऐश्वर्येवावृतुवरणे ।' १. इसके विषय में क्षीरतरङ्गिणी ४ । ४८, ४६; धातुप्रदीप (पृष्ठ ६३), पुरुषकार (पृष्ठ ८५) माधवीया घातुवृत्ति (पृष्ठ २९३) द्रष्टव्य हैं।