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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२) ७१ ५- महाभाष्य १।३।१ में लिखा है
'ईडि: स्तुतिचोदनायाच्यासु दृष्टः।' अर्थात्-ईड धातु स्तुति चोदना और याच्या अर्थों में देखी (पढ़ी) गई है।
सम्प्रति धातुपाठ में ईड धातु का स्तुति अर्थ ही उपलब्ध होता ५ है, चोदना और याच्या अर्थ उपलब्ध नहीं होते।
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि पाणिनीय धातुपाठ में चिरकाल से पाठ की अव्यवस्था अथवा विपर्यास प्रारम्भ हो गया था। सायण ने तो धातुपाठ में बड़ी स्वच्छन्दता से पाठ परिवर्तन-परिवर्धन तथा निष्कासन कार्य किया है, यह सायण के पूर्व उद्धरणों से व्यक्त है। १०
साम्पतिक पाठ सायण-परिष्कृत है पाणिनीय वैयाकरणों में धातुपाठ का जो पाठ पठनपाठन में व्यवहृत हो रहा है, वह प्राचीन आर्षपाठ नहीं है। अपितु विविध ग्रन्थों के साहाय्य से सायण द्वारा परिष्कृत पाठ है । सायण ने इस परिष्कार में अति स्वच्छन्दता से कार्य किया है, यह पूर्व उद्धरणों से १५ सर्वथा विस्पष्ट है। ___ सायण के पश्चात् भट्टोजि दीक्षित ने भी धातुपाठ में कुछ परिष्कार किया है। दीक्षितविरचित 'वेदसार" ग्रन्थ के सम्पादक ने भूमिका में दीक्षितविरचित ३४ ग्रन्थों का उल्लेख किया है, उनमें 'धातुपाठनिर्णय' का नाम भी मिलता है। यह ग्रन्थ हमें उपलब्ध नहीं २० हुआ।
सायण और दीक्षित द्वारा परिष्कृत धातुपाठ ही सम्प्रति पाणिनि-प्रोक्त समझा जाता है। परन्तु सायण द्वारा तन्त्रान्तरप्रसिद्ध पचासों धातुओं के प्रक्षेप और स्वशास्त्रपठित बहुत सी धातुओं के परित्याग के कारण यह 'पाणिनीय' पद से व्यवहर्त्तव्य नहीं है। २५ भूयसा व्यपदेशः न्याय से इसे सायणीय पाठ कहना ही युक्त है।
१६३) उसकी ओर यह संकेत है। सायणाचार्य ने ऋग्भाष्य में अनेक स्थानों पर धातुवृत्ति का निर्देश किया है। यथा--१ । ४२ । ७; १ । ५१ । ८॥ पादि आदि। १. उस्मानिया वि० वि० हैदराबाद से प्रकाशित ।