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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
अर्थात्-हमें तो दोनों प्रकार का सूत्र-विच्छेद प्रमाण हैं । क्योंकि आचार्य (पाणिनि) ने दोनों प्रकार से शिष्यों को पढ़ाया था।
इसका भाव यह है कि पाणिनि ने धातुपाठ का प्रवचन करते समय किन्हीं शिष्यों को तप ऐश्वर्ये वा, वृतु वरणे इस प्रकार विच्छेद करके पढ़ाया था, और किन्हीं को तप ऐश्वर्ये, वावृतु वरणे इस प्रकार।
धातुपाठ विशिष्ट स्वर-युक्त जिस प्रकार धातुपाठ से अनुनासिक चिह्न नष्ट हो गए, उसी प्रकार धातुओं के उदात्त, अनुदात्त निर्देशक चिह्न भी समाप्त हो गए। १० पूर्वकाल में इड्विधान के लिए जिन धातुओं का उदात्तत्व इष्ट था
वे उदात्त पढ़ी गई थीं और जिनसे इडागम इष्ट नहीं था उन्हें अनुदात्त पढ़ा था। तथा उसी का निर्देश पाणिनि ने एकाच उपदेशे अनुदात्तात् (७।२।१०) आदि सूत्रों में किया था। इसी प्रकार इत्संज्ञा
विशिष्ट अच् भी कोई उदात्त पढ़े गए थे, तो कोई अनुदात्त और १५ कोई स्वरित । इन्हीं का निर्देश पाणिनि ने
अनुदात्तङित प्रात्मनेपदम् । १।३।१२॥ स्वरितभितः कञभिप्राये क्रियाफले । १।३।७२॥
आदि सूत्रों में किया है । इसी लिए धातुपाठ के व्याख्याकारों ने भी लिखा हैं
'अत एव चुरादिभूतान् स्वरान्वितान् नाकरोत् ।' (क्षीरत० १०।१३११)
अर्थात्-इसीलिए चरादि धातुओं को स्वरयुक्त नहीं पढ़ा है। यही बात क्षीरस्वामी से पूर्ववर्ती काश्यप ने लिखी हैकार्याभावादेकश्रुत्या पठ्यन्ते इति ।' द्र०-धातुवृत्ति पृष्ठ ३७० ।
अर्थात्-स्वरनिर्देश का कार्य न होने से चुरादियों को एकश्रुति से पढ़ा है।
इन उद्धरणों से प्रतीत होता है कि शेष ६ गणस्थ धातुएं किसी समय विशिष्ट स्वरों से युक्त पढ़ी गई थीं।