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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२) ६६ ३-क्षोरस्वामी धातुपाठ के पाठभ्रशं से खिन्नमना होकर लिखता है ।... 'पाठेऽर्थे चागमभ्रंशान्महतामपि मोहतः । न विद्मः किन्नु जहीमः किं वात्रादध्महे वयम् ॥'
क्षीरतरङ्गिणी, चुरादिगण के अन्त में। ५ अर्थात्-पाठ और अर्थ-निर्देश में परम्परा के भ्रष्ट हो जाने से बहुज्ञों के भी मोहित होने से हम नहीं जानते कि किस पाठ को छोड़ें, अथवा किसको ग्रहण करें।
४-धातुवृत्तिकार सायण अनेक स्थानों पर लिखता है
क-इह केचिद् धृ धारणे इति पठन्ति, सोऽनार्षः..........। १० अस्माभिस्तु मैत्रेयाद्यनुरोधेन हरतेरनन्तरं पठित्वाऽयमुदाहृतः।' धातुवृत्ति पृष्ठ १८४
अर्थात् –यहां पर कई व्याख्याता धृ धारणे धातु पढ़ते है, वह पाठ अनार्ष है।......"हमने मैत्रेय आदि के अनुरोध से जित् प्रकरण में हम हरणे के अनन्तर पढ़ कर उदाहरण दिए हैं ।
ख-गाङ्गतौ गापोष्टक इत्यत्र न्यासपदमजोरयं धातुरादादिक इति स्थितम । शपि पाठे प्रयोजनं नास्ति । अस्माभिस्तु क्वाप्ययं पठितव्य इति मैत्रेयाद्यनुसारेणेह पठितः । धातुवृत्ति पृष्ठ १८५। ___ अर्थात्-गाङ् गतौ..... 'गापोष्टक' (अष्टा० ३।२।८) सूत्र पर २० न्यास और पदमजरी में यह धातु अदादिगण की मानी है। शपविकरण ( भ्वादि ) में पाठ का कोई प्रयोजन नहीं है। हमने इसे कहीं भी पढ़ना चाहिए, यह मानकर मैत्रेय आदि के अनुसार यहां (भ्वादि में) पढ़ा है ।
ग· षच समवायेएवं च न्यासकारादीनां बहूनामभिमतत्वादयं २५ धातुरस्माभिः पठित: । धातुवृत्ति पृष्ठ २०२ ।
अर्थात्-षच समवाये....'इस प्रकार न्यासकार आदि बहुत से व्याख्याकारों से स्वीकृत होने से इस धातु को हमने पढ़ा है।
१. काशी संस्करण में यहां पाठ अशुद्ध है।