SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास काल में प्राङः शासु का पाठ वेवीड़ के आगे नहीं था, यह उसके व्या ख्यान से स्पष्ट है । नागेश भट्ट ने भी प्रदोप के व्याख्यान में लिखा है 'ननु जक्षित्यादिभ्यः पूर्वमेव पास उपवेशने इत्यनन्तरमाङः शासु इति पठ्यते । तत्कथं तस्याभ्यस्तसंज्ञा स्यात्। अत आह-वेवीडो५ ऽनन्तर [कश्चित् पठ्यत] इति ।' अर्थात्--जक्ष धातु से पूर्व आस उपवेशने के अनन्तर ही प्राङः शासु का पाठ है । उस अवस्था में उसकी अभ्यस्त संज्ञा कैसे होगो ? इसलिए [कयट ने]कहा है-वेवी के अनन्तर कई लोग प्राङः शासु को पढ़ते हैं। १० इस व्य ख्यान से स्पष्ट है कि आङः शासु का पाठ महाभाष्यकार पतञ्जलि के काल में वेवी धातु के अनन्तर था, परन्तु कैयट के काल में उसका पाठ जक्ष धातु से पूर्व परिवर्तित हो गया था।' २-जक्षित्यादयः षट् (६।१।६) में षट् पद न रखने पर अदादि गण के अन्त तक अभ्यस्त संज्ञा की जो प्राप्ति होती है, तन्निमित्तक १५ दोषों का परिहार करते हुए महाभाष्यकार कहते हैं __ 'सिवशी छान्दसौ।' इस पर कैयट लिखता है 'षस शस्ति स्वप्ने इति ये न पठन्ति, केवलं षस स्वप्ने, वश कान्तौ इति तन्मतेनैदुक्तम् । २० अर्थात्-जो लोग 'षस शस्ति स्वप्ने' ऐसा पाठ नहीं पढ़ते, केवल षस स्वप्ने, वश कान्तौ ऐसा पढ़ते हैं, उनके मत से भाष्यकार ने उक्त ववन कहा है। इस व्याख्या से प्रतीत होता है कि कैयट के काल में इस प्रकरण का दो प्रकार का पाठ था। क्षीरस्वामी ने क्षीरतरङ्गिणी में षस स्वप्ने, २५ वश कान्तौ (२।८१,८२) पाठ माना है, और मैत्रेयरक्षित ने धातुप्रदीप में षस सस्ति स्वप्ने, वश कान्तौ पाठ का व्याख्यान किया है। -यति १. भाष्यकार ने अन्य सम्प्रदाय के घातुपाठ को दृष्टि में रखकर अभ्यस्तसंज्ञाविषयक दोष तथा उसका परिहार लिखा हो, ऐसा भी सम्भव हो सकता है। हमने तो कयट की व्याख्यानुसार यहां पाठभ्रंशदोष दर्शाया हैं।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy