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धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२)
पाणिनीय धातुपाठ
धात्वर्थरहित (लघुपाठ)
धात्वर्थसहित ' (वृद्धपाठ)
प्राच्य उदीच्य दाक्षिणात्य धातुपाठ का साम्प्रतिक पाठ-सम्प्रति पाणिनीय वैयाकरणों द्वारा धातुपाठ का जो पाठ पठन-पाठन में व्यवहृत हो रहा है, वह पूर्व- ५ निर्दिष्ट तीनों पाठों से विलक्षण है। यह पाठ प्राचार्य सायण द्वारा परिष्कृत है, यह हद आगे लिखेंगे ।
पाठ की अव्यवस्था जो अर्थनिर्देशयुक्त धातुपाठ सस्प्रति उपलब्ध है, उसमें पाठों को महती अव्यवस्था दिखाई देती है। उसमें किन्हीं धातुओं का क्रमविप- १० सि,किन्हीं का अर्थविपर्यास, किन्हीं धातुओं का प्रभाव और किन्हीं का आधिक्य देखा जाता है । धातुपाठ के किन्हीं भी दो वृत्तिग्रन्थों का पाठ समान उपलब्ध नहीं होता। धातुपाठ की अव्यवस्था चिरकाल हो रही है, और उत्तरोत्तर इसमें वृद्धि होती गई है । यथा
१-महाभाष्य ६।१।६ में लिखा है'जक्षित्यादयः षट्...."न वार्थः परिगणनेन आगणान्तमभ्यस्तसंज्ञा । इहापि तर्हि प्राप्नोति आङः शासु...।'
अर्थात्-'जक्षित्यादयः षट् (६।१।६) में [षट्] परिगणन की अावश्यकता नहीं है । [अदादि] गण के अन्त तक अभ्यस्त संज्ञा हो जाए। ऐसा होने पर यहां भी अभ्यस्त संज्ञा प्राप्त होगी-पाङः शासु इच्छायाम् । ___ इस भाष्यवचन से स्पष्ट है कि भगवान् पतञ्जलि के काल में प्राङः शासु इच्छायाम धातु का पाठ वेवीङ वेतिना तल्ये (क्षीरत. २७८) के अनन्तर कहीं पर था। महाभाष्य के व्याख्याता कैयट के
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१ इस प्रकरण की स्पष्टता के लिए भाष्य-प्रदीद ६।१।६ देखें ।