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२/६ धातुपाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता (२) ६५ उपलब्ध नहीं होता। प्रतीत होता है कि सार्थ वृद्ध धातुपाठ के पठनपाठन में व्यवहृत होने से लघुपाठ उत्सन्न (=नष्ट) हो गया।
वृद्ध पाठ का त्रिविधत्व भारतीय वाङमय में बहुत से ऐसे ग्रन्थ हैं, जिनके देशभेद से विविध पाठ उपलब्ध होते हैं। पाणिनीय व्याकरण के कतिपय ग्रन्थों ५ की भी यही दशा देखी जाती है । यथा
अष्टाध्यायी–पाणिनीय अष्टाध्यायी के प्राच्य, उदीच्य (पश्चिमोत्तर), और दाक्षिणात्य तीन प्रकार के पाठ उपलब्ध होते हैं। काशी में लिखी गई काक्षिका वृत्ति अष्टाध्यायी के जिस पाठ का प्राश्रयण करती है, वह प्राच्य पाठ है । क्षीरस्वामी क्षीरतरङ्गिणी में । अष्टाध्यायी के जिस सूत्रपाठ को उधत करता है, वह उसका उदीच्य पाठ है। दाक्षिणात्य कात्यायन' ने जिस सूत्रपाठ पर वार्तिक लिखे हैं, वह दाक्षिणात्य पाठ है । इन तीनों पाठों में प्राच्य पाठ वृद्ध पाठ है, उदीच्य तथा दाक्षिणात्य लघु पाठ हैं। इन दोनों में स्पल्प ही भेद है।
पञ्चपादी उणादि-पाणिनीय संप्रदाय से संबद्ध पञ्चपादी १५ उणादिसूत्रों के भी तीन प्रकार के पाठ हैं।' उज्ज्वलदत्त आदि की वृत्ति जिस पाठ पर है, वह प्राच्य पाठ है। क्षीरस्वामी द्वारा क्षीरतरङ्गिणी में उद्धृत पाठ उदीच्य पाठ है । नारायण तथा श्वेतवनवासी
१. द्रष्टव्य-प्रियतद्धिता दाक्षिणात्याः । महाभाष्य १३१, प्रा० १। तथा १० इसी ग्रन्थ का आठवां अध्याय पृष्ठ ३३१ (च० सं०)।
२. पञ्चपादी के विविध पाठों का प्रथम परिज्ञान हमें कुछ समय पूर्व ही हमा है। इस विषय में 'भारतीय ज्ञानपीठ काशी' से प्रकाशित 'जैनेन्द्र महावृत्ति' में 'जैनेन्द्र व्याकरण और उसके खिलपाठ' शीर्षक हमारा लेख देखें। पञ्चपादी पाठ का भी मूल कोई त्रिपादी पाठ था। इस विषय का विस्तार " मागे 'उणादि सूत्र के प्रवक्ता और व्याख्याता' नामक २४ वें अध्याय में देखें।
३. क्षीरतरङ्गिणी का जब सम्पादन किया था, तब हमें यह रहस्य ज्ञात नहीं था। इसलिए उणादिसूत्रों में प्राच्यपाठ से जहां पाठभेद उपलब्ध हुआ, वहां हमने दशपादी उणादि के पते दे दिए । दशपादी के भी दो पाठ हैं। हमारे